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प्रेम की दिव्यता , मृदुला जु

भाव स्वयं ही प्रकट होते हृदय में ।और यही परम सत्य है ॥ जब हम किसी को सुन या पढकर लिख रहे तो वह हमारे हृदय से नहीं निकले ॥ अनन्त भाव है प्रेम राज्य में ॥ प्रेम एक बहुत गहन तत्व है ॥ वास्तविक प्रेम वह है ही नहीं जैसा हम समझते जानते ॥ अभी जो है वह कामना है प्राप्ति की ॥ प्रेम बिना कृपा के चाहें रसिकों की हो गुरु की हो या स्वयं  उनकी ॥ कृपा ही प्रेम प्राप्ति का एकमात्र उपाय है क्योंकि जीव में तत्वतः प्रेम है ही नहीं ॥ तो उसे बाहर से अर्थात् कृपा से प्रदान किया जाता है । फिर वह जीव की स्वयं की भाव स्थिती के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होता है और अपने चरम तक पहुंचता है ॥ तो मन में यह हीनता की मुझे प्रेम न हुआ नहीं होनी चाहिये क्योंकि ये होता नहीं मिलता है । तो व्यग्रता ये होनी चाहिये कि मिला नहीं अभी तक ॥ मिले उसी के लिये समस्त साधन भजन है कि उसकी भूमिका तैयार होवे ॥वही दायित्व है हमारा ।  जब वे उचित भूमी देखेंगे तो स्वतः प्रेम बीज का वमन करेगें ॥तो किसी को क्या प्राप्त है यह देख तुलना मत करो ॥ वास्तविक स्थिती केवल श्री भगवान ही जानते हैं ॥ पढकर या सुनकर लिखने से क्या प्रेम सिद्ध हो जाता है ॥ नहीं ॥ लेखन प्रेम का प्रमाण नहीं है ॥ सो केवल प्यास जगाओ प्रेम की प्रेम प्राप्ति की बस ।

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