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प्रीति गहनता , मृदुला जु

प्रेम जितना गहन होता है प्रियतम उतने अलभ्य प्रतीत होने लगते हैं ॥ अलभ्य से तात्पर्य दुर्लभ नहीं है ॥ इसे यथारूप व्यक्त कर पाना कठिन है ॥ यद्दपि भाव विहीन को भगवद् दर्शन होते नहीं हैं परंतु यदि ऐसा हो तो उसे भगवद् दर्शन में कोई असुविधा नहीं होगी ॥ अर्थात् भाव विहीन होने के कारण उसे श्री भगवान् के स्वरूप की उपलब्धि नहीं होगी ॥ वह अतयंत सामान्य रूप सेेे उन्हें देख सकता है ॥ जिस प्रकार श्रीबाँकेबिहारी जू या श्री राधावल्लभलाल जू या किन्हीं अन्य रसमय स्वरूप के सन्मुख हम सामान्य संसारी सरलता से जा सकते हैं दर्शन भी हजारों की संख्या में नित्य सब कर ही रहे हैं ॥परंतु कोई रसिक जन या भावुक जब दर्शन हित सन्मुख होवे हैं तो भावातिरेक के कारण प्रेम के कारण दर्शन बडों कठिन हो जावे है ॥एक ही अंग की छवि माधुरी में वा के नयन डूब जावे हैं तो संपूर्ण दर्शन तो वास्तव में प्रेमी कबहुँ कर ही नाय सके है ॥ तो कहने से तात्पर्य यह है कि प्रेमी कभी पूर्ण पा ही नहीं सकता ॥ यहा प्रियतम के दर्शन से हृदय द्रवित हो नेत्रों से बहने लगता है ॥वाणी असमर्थ हो जाती है ॥लगता है हृदय के भाव मन वाणी की सीमा से परे पहुँच गये हैं ॥ जब संसार में प्रेमी हृदय की ऐसी स्थिती हो जाती है तो दिव्य प्रेम राज्य में श्री प्रिया की गहनतम् प्रेम की दशा कैसी होगी ॥ वे तो कृष्ण नाम सुनने मात्र से ही मूर्छित हो जातीं हैं ॥ प्रियतम की अंग गंध ही भाव समाधि में ले जाती है ॥स्मृति मात्र से सुधिबुधि खो जाती है ॥ प्रेम जितना गहन होता जायेगा  प्रियतम की सूक्ष्मतम् से सूक्ष्मतम् सन्निधि , से उतना ही गहनतम् से गहनतम् प्रियतम में डुबा देगा ॥ कितना कहा जा सकता है जिस ब्रज की रज में हम भाव रिक्त दिन भर घूम लें लोंट ले मस्तक पर धारण कर ले कुछ अनुभव नहीं होता ॥परंतु जैसे ही कोई भावराज्य का प्रेमी इसी ब्रज रजरानी के एक कण को भाव में भी स्पर्श कर लेगा तो ऐसे भाव में गोता सहज ही लग जायेगा कि ना जाने कितना समय लगे बाहर आने में ॥प्रेम तत्व सर्वथा विलक्षण है ॥समस्त विपरीत स्थितियाँ इसमें युगपत विराजमान रहतीं हैं ॥

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