Skip to main content

प्रियालाल जु प्रेम रंग रस होरि खेलत 2 , सलोनी जु

प्रिया जु श्यामसुंदर जु का स्पर्श पाते ही होश में तो आतीं हैं परंतु आज उनकी भावदशा केवल रूप रस रंग होली के गहरे रंगों में डूबने की है।अर्धनिमलित नयनों से वे प्रियतम श्यामसुंदर जु को निहारती हैं और उन्हें अपनी भावभंगिमाओं से आमंत्रण दे रही हैं कि आओ मोहन आज प्रिया के रंग में रंग जाओ।उनके अति सुकोमलतम अंगों से दिव्य महक व रस अनवरत प्रियतम को व्याकुल व भावविभोर कर रहा है पर वे प्रिया जु को एक बार पूर्ण होश में लाना चाहते हैं और कोमल स्पर्श से उनके प्रत्येक अंग को संवरित करने का प्रयास करते हैं पर प्रिया जु तो डूब ही चुकी हैं अपने प्राणप्यारे को होली में अनंत सुख भरे रूप रंगों का उपहार दे रंग जाने के लिए।

सखी अपनी प्रिया जु की तीव्र उत्कण्ठा में उनके अंगों से वस्त्र सरकते जा रहे हैं यह देख एक एक कर दिव्य शीतल रस प्रिया जु के अंगों पर उंडेलने लगती है जो प्रिया जु की रसदेह पर ऐसे बहने लगते हैं कि वे विश्रांत होने की बजाय और अधिक व्याकुलित हो उठतीं हैं।श्यामसुंदर जु दावानल से जैसे लावा बह रहा हो और धरा उसकी अग्नि तत्व से संत्पत हो रही हो यह देख अपने अधरों से उस रस को पीने लगते हैं।जैसे जैसे श्यामसुंदर जु प्रिया जु के हर एक अंग व रोमकूप से यह अमृत पीते हैं सखी वैसे वैसे कभी प्रिया जु के अधरों पर तो कभी दाईं ओर व कभी बाईं ओर विभिन्न रसों को डालती जा रही है।श्यामा जु शिख से नख तक रसभरी हो चुकीं हैं और प्रियतम श्यामसुंदर अथकित भ्रमर बन अपनी प्राणस्वरूपा कमलिनी के अंग प्रत्यंगों से बह रहे रस का पान कर रहे हैं।ऐसी दिव्य रस रंग होली खेलते प्रियालाल जु कब तक रसडुबकियाँ लगाते रहे इसका उनको अनुमान भी नहीं।तब प्रियतम श्यामसुंदर स्वयं रसातुर सखी से दिव्य पात्रों में भरा रस ले कर प्रिया जु की व अपनी इच्छा अनुसार रोमकूपों में भर भर पीने लगते हैं।

सखी वहाँ से चली जाती है और पुष्प व लताओं से बनाए उस सघन निकुंज के बाहर खड़ी हो जाती है।कभी कभी वह एक लता को ज़रा हटाकर भीतर दृष्टिपात करती है कि प्रियालाल जु को किसी सेवा की आवश्यकता तो नहीं पर वह स्वयं भी युगल सुख में ऐसी डूबी है कि खुद का हृदय ही निकुंज बना जान कभी प्रिया जु की सेवा में रसपान करती श्यामसुंदर हो जाती है तो कभी प्रियतम की तृषातुरता देख सेवारत हुईं प्रिया जु होने लगती है।

कुछ पलों में श्यामा जु के अंगों से छू कर अमृत बने रस को पीते प्रियतम श्यामा जु के अंगों से अंग मिलाने लगते हैं और श्यामा जु श्यामसुंदर जु को डूबते देख कुछ संवरित हो जातीं हैं और तुरंत प्रियतम श्यामसुंदर जु के कर से पात्र ले अलग रख देतीं हैं और उन्हें संग ले कालिंदी तट की ओर मंद गति से चलतीं हैं।श्यामसुंदर जु भी पुष्प की महक से मंत्रमुग्ध हुए मदमत् भ्रमर की तरह उनके पीछे पीछे चल देते हैं।

प्रिया जु सहज बह रही कालिंदी की रसधार में धीरे से उतरने लगतीं हैं और प्रियतम जु भी उनका हाथ थामे जल में प्रवेश कर जाते हैं।उनकी देह पर से विभिन्न रंग बिरंगे रसरंग जल में घुलने लगते हैं और उनकी दिव्य आभा व महक से पूर्ण जलराशि चमक उठती है।प्रियालाल जु की रसदेहों की रूपछटा जलकेलि करती दिव्य हंस हंसिनी की सुंदर जलक्रीड़ा सी जान पड़ती है।प्रियतम श्यामसुंदर प्रिया जु के अंगों से गहरे कर स्पर्श से सभी रसों को छुड़ाने लगते हैं।

एक एक अंग का स्पर्श कर धीरे धीरे जब सभी रंग छूटते हैं तो प्रिया जु की देह जैसे श्यामवर्ण जल में चमकती सुनहरी मीन जैसी होने लगती है और श्यामसुंदर जु जलरूप हुए उनके अंगों को स्पर्श करते कभी भीतर समाते से और कभी सतह से बहते हुए हर तरह से रसपान कर रहे हैं।जैसे जैसे प्रियतम श्यामसुंदर जु प्रिया जु की रसदेह का सुखपान कर रहे हैं ऐसे ही प्रिया जु भी प्रियतम श्यामसुंदर जु की रसरूपराशि का पान कर रहीं हैं जिससे प्रियतम को दिव्य सुखअनुभूति हो रही है।

दोनों ही प्रिया लाल जु परस्पर सुखरूप होते गहराते जाते हैं और उनकी रसदेहों से अनवरत बहता रस कालिंदी कूल को रसमग्न करता भिगो रहा है।श्यामा श्यामसुंदर जु की देह से रंग छूटते हुए उन्हें एकरंग एकरूप एकरस कर रहे हैं और अब उनकी रसदेहों का भेद पाना भी नामुमकिन हो रहा है।कभी श्यामा जु श्यामसुंदर बन रसपान कर रहीं हैं और श्यामसुंदर श्यामा जु बन रस पिला रहे हैं तो कभी श्यामसुंदर रसभ्रमर बने श्यामा जु की दिव्य रसदेह से रसपान कर रहे हैं।ऐसी गहनतम रूप रस रंग होली खेलते युगल समयावधि व स्वयं को भूल डूबे हुए रहते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...