श्री यमुना पुलिन से कुछ ही दूरी पर एक विशाल,छायादार वृक्ष के नीचे श्री प्रिया प्रियतम परस्पर मुख सुधा नयनो से पीते हुए मौन बैठे है।
इसी समय श्री प्रिया जु की दृष्टि श्री प्रियतम के वक्ष पर सजे कंठहार मे जडित एक बडी सी मणी मे प्रतिबिम्बित स्वयं के ही मुख कमल पर पडती है।श्री प्रिया जु अत्यंत चकित सी होकर इस प्रतिबिम्ब को निहार रही है।यू ही आश्चर्यमयी उत्सुकता मे श्री प्रियतम से कहती है----प्रियतम!यह तुम्हारे हार मे तुमने किस बडभागिनी का चित्र जडवाया है?(श्री प्रिया जु को लग रहा की यह किसी स्त्री का चित्र श्री प्रियतम ने अपने हार मे जडित कराया है)
----प्रियतम!ऐसा प्रतीत होता है,यह तुम्हारी अत्यंत प्रिय है।इसी कारण से तुमने इसे अपनी मणी मे जडित कर अपने वक्ष पर धारण किया हुआ है।
श्री प्रियतम कुछ मुस्कुराकर बोले----हाँ प्रिये!तुम सत्य कहती हो।यह मुझे प्राणो से भी अधिक प्रिय है।
श्री प्रिया बोली----अहा!प्राणेश्वर यह सुंदरी निश्चित ही तुम्हे परम सुख प्रदान करती होगी।(अब तक श्री प्रिया जु के नयन भर आए)
श्री प्रियतम बोले----हाँ प्रिये!यह रमणी मुझे परम सुख प्रदान करती है।यह तो प्रतिपल मेरे सुख के लिए बाँवरी रहती है।इसने अपना प्रेम मेरे रोम रोम मे इस प्रकार भर दिया है की मेरे रेम कूपो मे इसकी ही छबी दिखती है,देखो....मेरे नयनो मे देखो तो प्रिये!(कहकर प्रियतम अपने पितांबर से प्यारी जु के भर आए नयन पौछते है)श्री प्रिया जु श्यामसुंदर की दोनो पुतलियो मे स्वयं को ही देख नयन झुका लेती है।
प्रियतम पुनः प्रिया जु की चिबुक पकड इनका मुख किंचित उठाते हुए बोले----इसका मुझमे इतना अधिक अनुराग है की स्वयं को तो यह विस्मृत ही कर चुकी है,कभी दर्पण मे स्वयं को देख यह पहचान नही पाती।और कभी कभी तो.....(प्रियतम के नयन छलक उठे)
श्री प्रिया---और कभी कभी क्या?
श्री प्रियतम---और कभी कभी तो मेरे प्रेम मे ऐसी बाँवरी हो जाती है की वृक्षो,मयूरो,दर्पण मे मुझे देख उन संग ही बतियाने लगती है।
श्री प्रिया----आह! और तुम इस रमणी को तजकर मेरे समीप आए हो।मै,जो तुम्हे कोई सुख न दे सकती।
कुछ क्षण रूककर बोली----प्रियतम श्यामसुंदर!मै नित्य ही तुमसे नई अभिलाषा करती हू न....किंतु अभी मेरे ह्रदय मे इस बडभागिनी के दर्शनो की अभिलाषा है।संभवतः इसकी रज अपने शीश पर धारण कर ही मै तुम्हारे सुख हेतू कुछ कर सकू।श्यामसुंदर!तुम मुझे इसके समीप ले चलो न।
श्री प्रियतम----प्रिये!तुम क्यू...मै इसको यही बुलाय लेता हू।
श्री प्रिया--- नही नही श्यामसुंदर!मै पहले ही तुम्हे कोई सुख न दे पाती हू,उस पर से तुम्हारी प्राणेश्वरी को यहा बुलाकर श्रमित करू....नही नही...मै ही चलूगी।तुम ले चलो न।
श्री प्रियतम श्री प्रिया जु को लेकर यमुना पुलिन की ओर बढे।
प्रिया जु को जल मे उनका प्रतिबिंब दिखाते हुए बोले....देखो प्रिया जु,यह है मेरी प्राण प्रिया।
श्री यमुना जु स्थिर होकर किसी दर्पण की भाँति प्रिया जु का प्रतिबिंब दिखाती है।
श्री प्रिया जु जल मे देख फिर श्री प्रियतम की ओर देखती है।प्रियतम मुस्कुराते हुए बोले----हाँ,यही है मेरी प्राणप्रिया।कहते कहते प्रियतम के नयन बहने लगे----आज मेरा परम सौभाग्य हुआ की मै किंचित अपनी प्राण प्रिया के गुणो का वर्णन कर सका....
यह सुनकर प्रिया जु पिताबंर की ओट मे मुख करके श्री प्रियतम के ह्रदय मे सिमट जाती है।
भूली निज गेह भान प्यारी।
अकं गहि बिंब आप दैखी,कियै बिचार ऐही दूजी नारी।
पिय सुख लैस नाही मौ सौ,चहै रज पिय हिय विहारी।
कूल कलिंद पिय लाय दिखायौ,तौ ही मम हौ दुलारी।
भाव विभाव नित नवल तरंगा,प्यारी जौरी हिय नैन बिचारी।
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