Skip to main content

र से रस , 26 , संगिनी जु

!! राग अनुराग नवरस !!

नित्य नव वृंदावन नित्य नवीन प्रवीण सखीमन नित्य नव नव श्री युगल मिलन।यही तो है वृंदावन धाम का नव नित्य प्रगाढ़ प्रेम रस जहाँ राग अनुराग की सजल धारा अनवरत बहती जहाँ पियसुख ही प्रियासुख और प्रियासुख ही पियसुख है।जहाँ सखी का मन ही युगल प्राण और युगल का मन सखी संगीनियों का जीवन प्राणधन।परस्पर सुखसार हेतु बहती प्राणवायु जिसके तार आपस में ऐसे बंधे कि स्व अस्तित्व ही नहीं किसी एक कण का भी।प्रियालाल जु सदा मिले रहें और सदा मधुररस में एकरस बहते रहने के लिए अनुरागिनी सखियाँ रसवर्धन हेतु नव नव राग बुनती रहतीं।परस्पर अनुराग में डूबे युगल और इस गहनतम अनुराग में डूबी सहचरी सखियाँ अभिन्नता की परिसीमाओं को लांघ एक हो रहतीं सदा।पिय मन जो भाता वही प्यारी जु का रसरंग चलन और प्रिया जु को जो भाए वही लाल जु की तृषा व कशिश।परस्पर सुखदान करते तानों बानों में बंधे प्रियालाल जु और अनुरागवशीभूत प्रियतम सुख ही सखियों का प्रिया जु हेतु सेवाभाव।इस पूरे ताने बाने में बुनी एक गहन प्रेम रस झन्कार जो नव नव सदा सहज सजल नवीन बनाए रखती इन रागानुरागियों को।जैसे श्वास जीवन से जुड़ा सदा ऐसे ही एक नवरसीली झन्कार अनुभूत होती इनके विशुद्ध विचित्र प्रेम में जो अग्नितत्व बन व्याकुल झन्कृत जीवंत रखती नवरसपान हेतु।एक झन्कार जो प्रिया जु से प्रियतम में और युगल से सखियों तक तरंगरूप बहती रहती नित्य नव नित्य रस बन।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे नवरस तरंग कर दो
सदा बहती रहूँ प्रेम बन
रागानुरागियों की रंगो में
"र"स्वर से झन्कार बन
तुम जो कह दो तो
जीवन प्राणधन
नवकोपलों में सींचन हेतु
नित्य नव झन्कृत रहूँ
मधुर प्राणवायु बन बहूँ !!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात