!! राग अनुराग नवरस !!
नित्य नव वृंदावन नित्य नवीन प्रवीण सखीमन नित्य नव नव श्री युगल मिलन।यही तो है वृंदावन धाम का नव नित्य प्रगाढ़ प्रेम रस जहाँ राग अनुराग की सजल धारा अनवरत बहती जहाँ पियसुख ही प्रियासुख और प्रियासुख ही पियसुख है।जहाँ सखी का मन ही युगल प्राण और युगल का मन सखी संगीनियों का जीवन प्राणधन।परस्पर सुखसार हेतु बहती प्राणवायु जिसके तार आपस में ऐसे बंधे कि स्व अस्तित्व ही नहीं किसी एक कण का भी।प्रियालाल जु सदा मिले रहें और सदा मधुररस में एकरस बहते रहने के लिए अनुरागिनी सखियाँ रसवर्धन हेतु नव नव राग बुनती रहतीं।परस्पर अनुराग में डूबे युगल और इस गहनतम अनुराग में डूबी सहचरी सखियाँ अभिन्नता की परिसीमाओं को लांघ एक हो रहतीं सदा।पिय मन जो भाता वही प्यारी जु का रसरंग चलन और प्रिया जु को जो भाए वही लाल जु की तृषा व कशिश।परस्पर सुखदान करते तानों बानों में बंधे प्रियालाल जु और अनुरागवशीभूत प्रियतम सुख ही सखियों का प्रिया जु हेतु सेवाभाव।इस पूरे ताने बाने में बुनी एक गहन प्रेम रस झन्कार जो नव नव सदा सहज सजल नवीन बनाए रखती इन रागानुरागियों को।जैसे श्वास जीवन से जुड़ा सदा ऐसे ही एक नवरसीली झन्कार अनुभूत होती इनके विशुद्ध विचित्र प्रेम में जो अग्नितत्व बन व्याकुल झन्कृत जीवंत रखती नवरसपान हेतु।एक झन्कार जो प्रिया जु से प्रियतम में और युगल से सखियों तक तरंगरूप बहती रहती नित्य नव नित्य रस बन।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे नवरस तरंग कर दो
सदा बहती रहूँ प्रेम बन
रागानुरागियों की रंगो में
"र"स्वर से झन्कार बन
तुम जो कह दो तो
जीवन प्राणधन
नवकोपलों में सींचन हेतु
नित्य नव झन्कृत रहूँ
मधुर प्राणवायु बन बहूँ !!
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