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र से रस , 36 , संगिनी जु

!! भाव अलंकार भूषण !!

परस्पर निहारते श्यामा श्यामसुंदर जु रसमग्न हुए निकुंज में निर्मल विशुद्ध प्रेम की अद्भुत झाँकी हैं।उनका दिव्यातिदिव्य प्रेम भाव ऐसा है जैसे एक चंचल चित्तवन और दूसरा अति सुकोमलतम रसस्वरूप।सदैव परस्पर आलिंगित श्रीयुगल रसधराधाम पर ब्रह्मांड के अति गहन प्रेमी युगल बने विचरते हैं।दो दिखने वाले युगल रसमगे सदा एक दूसरे में समाए हुए अभिन्न भावलहरियों में विहरण करते हैं।श्यामा श्यामसुंदर जु का प्रेम केवल दैहिक ना होकर विशुद्ध प्रीतिरस की मंत्रमुग्ध कर देने वाली मूर्त रूप है।जब प्रियालाल जु परस्पर निहारते अनंत घड़ियों तक बैठे रहते हैं तो ना केवल उनके नयन एक दूसरे से उलझे हुए होते हैं अपितु उनका एक एक अंग परस्पर अंगों को निहारने का सुखदान कर रहा होता है।पुलकित रोम रोम श्रीयुगल जु का परस्पर उलझा हुआ होता है।दर्शन मात्र में वे प्रेमीयुगल दिखने वाले प्रगाढ़ रसालिंगित ही जीते हैं।परस्पर भावनिमग्न अलंकाराभूषण भी जैसे प्रेम रस वार्ता में डूबे हुए से स्वतः झन्कृत होती रहती है।श्यामा जु की पायल के घुंघरू जहाँ प्रियतम की पायल को झन्कृत करते हैं वैसे ही उनके समग्र आभूषण झन्कार बन प्रतिपल श्रीयुगल को सिहरन स्पंदन देते रहते हैं।आँखों का काजल व अधरों की लाली सब उलझे हुए परस्पर निहारते हुए।हर क्षण रोम रोम का परस्पर गहन दर्शन पाता है और लहराते केश कुन्तल भी उलझे हुए।कर कर में लिए प्रियालाल जु रसमगे से डूबे हुए रसकेलि का अमृतस्वरूप भाव लिए हुए अतिगूढ़ झन्कृत करने वाले भावों का आदान प्रदान करते परस्पर निहारते सुखदान करते नहीं अघाते।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे वही विशुद्ध प्रीति वाली
अति मधुर सुकोमल रसधार कर दो
तुम जो कह दो तो
चंचलता भरी चितवन से
सदैव झन्कृत होती रहूँ  !!

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