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र से रस , 25 , संगिनी जु

!! रस स्पर्श तरंगें !!

गहन अनछुई सी पवन रूप बहतीं भाव तरंगें दो प्रेमी हृदयों में अनवरत जो सवरूपतः एक हैं और स्वभावतः अभिन्न होकर भी द्वितनु।दो मन पर एकरस सदा गहरे इतने कि देह की दूरी होने पर भी वियोग उन्हें छूता ही नहीं।एक ज्योतिपुँज बन प्रकाशमान रहते सदा एक दूसरे में।रसमगे सोए सोए जगे एक साथ।रस गाढ़ता में प्रेमी युगल देह स्पर्श से परे की भावतरंगों में सदा मानसिक वार्ता करते मौन पर झन्कार बन समाई रहती उनके हृदय में और स्पंदित करती नख से शिख तक एक एक रोमकूप में रस भरती हुई।यह मानसिक स्पंदन एक व्याकुलता सी भरता सदा पर मधुर झन्कृत व्याकुलता जिससे परस्पर मिलित मन जीवंत रहते देह से परे।एक ऐसी विशुद्ध प्रीत जो मानसिकता की गहराईयों में खोई रहती और खो जाते इन गहराईयों में मधुर भावभावित युगल मन जिनकी भावभंगिमाएँ एक चेष्टाएँ एक मन एक प्रेम रस रूप एक अभिन्नता की गहराईयाँ जो दो प्रेमियों को युगल करतीं।प्यार से सींचित तरंगें अति गहन अनछुई भी पर रसलिप्त सदा तृप्ति अतृप्ति का खेल खेलतीं।यह स्पंदित तरंगें मीठी झन्कारों का रूप ले थिरकती थिरकाती रहतीं सदा प्रेमियों को।अतृप्ति और व्याकुलता में प्रेम को गहन से गहनतम और गहन करतीं जिससे यह दूरी भी झन्कृत हो समा जाती भीतर प्राणवायु बन कर और मिलन की आस गहराती और गहराती और गहराती।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे उस रस स्पर्श
की एक बुदबुदाती सी
गहरे प्रेम वाली रस बूँदिया
व्याकुल रस झन्कार कर दो
तुम जो कह दो तो
रस स्पर्श तरंग बन
सदा युगल प्रेम में
गहराती रहूँ !!

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