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र से रस , 32 , संगिनी जु

!! रसमधुरिम अरूणिम प्रेमविलास !!

स्वसुख की जहाँ गंध तक नहीं वहाँ प्रियालाल जु परस्पर सुखदान करते निरंतर सखियों संग लीलायमान रहते हैं।श्यामसुंदर जु श्यामा जु जिस तरह एक दूसरे की चाह में सदा रंगमंच के नायक नायिका हैं वहीं वे अपनी कायव्युहरूप सहचरी अनुगामिनी सखियों के भी प्राणधन हैं।सेवारत सखियाँ प्रियालाल जु के सुख हेतु ही सदैव मकरंद रसकणों सी मधुर कोमल झरती रहती हैं और श्यामा श्यामसुंदर जु भी उन्हें तृप्त करने हेतु उनकी समस्त सेवाओं के लिए भृमर-भृमरी रूप उन संग वनविहार करते हैं। यह भृमर-भृमरी स्वयं ही फूल-फुलनि है और स्वयं ही रसिली-रसिक । सखी के अंतर्मन के मधुर रसभाव में जो प्रेम झन्कार बन नित्य नवनवायमान रहता है वही प्रेम प्रियालाल जु के सुखरूप उनमें रस-संचार बन अनवरत बहता है।गलबहियाँ डाले श्यामा श्यामसुंदर जु जब निकुंजों में बिहरते हैं तो सखियाँ भी उनकी विलासानुरूप उनके संग संग रसरूप बिहरती हैं।श्यामसुंदर जु जैसे श्यामा जु से नित्य प्रगाढ़ प्रेम निमग्न हैं वैसे ही वे सखियों के प्रेम का भी अभिनंदन करते हैं और उनकी रसपिपासा के प्रतिरूप उनसे लीला भी रचते हैं।उनका अत्यंत गहन प्रेम व परस्पर सुखदान में निहित उनकी एक दूसरे के प्रति प्रगाढ़ भावपूर्ण साज संभाल भावनात्मक रस का आदान प्रदान सदा सखियों को झन्कृत व स्पंदित रखता है जिससे प्रियालाल जु सदैव गहन आलिंगित रहते उनको सराहते प्रेम में डुबाते रहते हैं।प्रियालाल जु के परस्पर निहारने व प्रेम में डूबे रहने में ही सखियों को परम सुख मिलता है और इसी रस में नहाई अलबेली सखियाँ सदैव महकती युगल संग झन्कार बन वनविहार करतीं हैं।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
"र" से रसस्कित
तुम्हारी परस्पर भावनाओं का
झन्कृत व्याकुल संगीत बनूं
तुम जो कह दो तो
रसविलास में मकरंद रूप झरूं
तुम कभी छल कर
तो कभी प्रेम भर
पुष्प मकरंद को पीते रहो
सदैव सुखदान करती रहूँ  !!
।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।

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