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र से रस , 16 , संगिनी सखी जु

!! इत्र पुष्सार केसर अंगराग !!

एक दिव्य महक श्री वृंदावन के वातावरण में सदैव घुली रहती।स्पष्टतः यह महक गहरे प्रेम की ही जो प्रियालाल जु के कुंज निंकुजों में विचरते रसश्वासों से महकती पवन को महका देती और बहती धरा धाम को शुद्धता प्रदान करती तरोताज़गी व मधुरता बिखराती।ऐसी महक जिससे प्रकृति का एक एक कण बेल तनाव पत्र सुवासित होता और झन्कार रूप प्रिया प्रियतम प्रिया प्रियतम प्रिया प्रियतम रटता रहता।श्यामा श्यामसुंदर जु गलबहियाँ डाले जहाँ जहाँ से विचरते गुनगुनाते कभी हंसते गाते लाड़ लड़ाते वहाँ वहाँ यह बेल पत्र पुष्प आकुल व्याकुल होते कि उन्हें श्रीयुगल का स्पर्श मिले और वे इनकी प्रेम रसदेह का श्रृंगार करें।श्यामा जु जिस भी पुष्प का चयन कर उसकी ओर हाथ बढ़ातीं श्यामसुंदर जु उसी पुष्प को अंगीकार कर अपने करकमल की महक से विमुग्ध कर तोड़ लेते और डलिया में रखते जाते।व्याकुल झन्कृत यह पुष्प पवन संग तरंगायित कंपित से श्यामा श्यामसुंदर जु की ओर स्वतः झुक झुक कर उनका स्पर्श पाना चाहते और भर जाते इनके रस में नहाए हुए झन्कार रूप श्रीयुगल का गुणगान करते।सखियाँ इन्हें स्वच्छ कर मिहीन छान पीस कर इनसे दिव्य रस और अंगराग पुष्पसार बनाकर इत्र रूप प्रियालाल जु पर और सर्वत्र छिड़कतीं।श्रीयुगल जु के अंगों को यह चंदन उबटन केसर इत्यादि विभिन्न रूपों में स्पर्श कर स्वयं को तृप्त करते।दिव्य प्रेम रस इन वृंदावनिय पुष्प इत्रसार में।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इन दिव्य बेल तनों की
वो व्याकुल झन्कार कर दो
पुष्प और इत्र रूप
तुम जो कह दो तो
श्रीअंग पर महक बन समाऊं
व्याकुल सदा
व्याकुलित प्रेम देह महकाऊं
कभी चरणों से लग कभी मस्तक पर
रस प्रेम की झन्कार सदा सुनाऊं !!

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