!! प्रेम रस रंग होरि !!
होली का उत्सव और ब्रज धराधाम एक अटूट गहरा एहसास इसमें जो फाल्गुन मास से पूर्व ही रसिक हृदय मंदिर में होली के प्रेम भरे रंगों की महक व झन्कार बन नाच उठता है।होली का अर्थ केवल रंगों का त्योहार श्री वृंदावन की कुंज निकुंजों में कदापि नहीं है।यह एक गहन प्रेम भाव जहाँ ना केवल रंगों पुष्पों और मिष्ठानों से उत्सव रूप मनाया जाता अपितु एक गहन रस होली जिसमें प्रियालाल जु संग होली खेल उनके रस रंग में भीगना होता है।निःशब्द !!एक गहरा सा स्पंदन जो झन्कार बन सखी हृदय ने चाहा और पाया व रंगा जैसे श्रीयुगल ने तय किया।एक गहन रस रंग होरी जो रगों में रस बन बहती और भीतर निभृत निकुंज भाव से झन्कृत सिहराती तन मन प्राणों को।ऐसी होली जिसमें एक बार रस फुहार में भीगे तो सदा के लिए भीग गए।रंगों की भी सुधि नहीं जो रंग इस होली में चढ़ा वो रंग उतरता भी नहीं युगों युगांतरों तक।गहरा रंग प्रेम का जिसमें केवल नहाना संभव नहीं डूब जाना ही सम्भव।कुछ एहसास महसूस किए जाते लिखे नहीं जिये जाते और यह रस रंग होली वही एहसास गहनतम एक झन्कार बन जो समा गया अंतर में।एक इस बरस की होली और अब सदा वही रस रंग जो उतरे ना बस चढ़ता जाए गहराता जाए जितने बहे उतना बढ़े क्यों कि यह वो रंग नहीं जो लगाया और उतारा यह वो रस जो समाया और समाता चला गया।एक रंगों जो प्रियतम के कर से छू कर प्रिया जु को रस में भिगोता और वह रस प्रियतम को डुबोता।वही रंग जो 'रंग ना डारो बनवारी रे' से 'आज रंग डारूंगी श्याम' हो रसरूप हो जाता।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे वो रस रंग बूँद बना दो
जो उछले चढ़े और गहराए
जावक अल्ता सी समाकर
अंतर में खो जाए
तुम जो कहें दो तो
रस की एक झन्कृत फुहार बन
छिटके रंगों में एक बूँद रस हो जाऊँ
तुम भीगो उस रस रंग में
मैं रस बन राध्यरंग में घुलमिल जाऊँ !!
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