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र से रस 17 , संगिनी जु

!! सुमरिन श्रवण ग्रहन !!

पात्रता ना सही पर पिपासु तो हैं ही ना।ब्रज रज की रस की गहन पिपासा जो प्रियालाल जु की कृपा से ही किसी सुंदर हृदय मंदिर में आ समाती है और तीव्र व्याकुलता का स्वरूप होकर एकचित्त एकनिष्ठ हो सदैव विचरती है उस भावजगत में जहाँ से उसका संबंध कोई आज का तो नहीं।जन्म जन्मातर युगों से युगल प्रेम के अभिलाषी चित्त ने युगल कृपा से अपना यह पथ खोजा होगा और पाया भी।इस अप्राकृत जगत का ही भाव प्राणी भटकता हुआ अब अपनी सही मंजिल की अग्रसर पर राह बनते स्वयं श्रीयुगल और भेंट कराते उन सत्पुरूषों से जिनके नाम मात्र ही भिगो जाता उतर जाता रस रूप जड़ देह में ऐसे कि फिर कोई और रंग ना चढ़ता।यही नाम सुमिरन पिपासू की रगों में दौड़ता विचरन करता जिसके श्रवण चिंतन से अति अतृप्त भावतरंगें झंकार बन पल पल उठती और इन्हें ही साधक ग्रहण कर भी प्यास को अनवरत बढ़ाता।प्रियालाल जु के कृपा पात्र ही इस व्याकुलित रस प्रवाह में उस झन्कार को महसूस कर पाते जो सदा उतरती बहती रसिक हृदय मंदिर में।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इस सुंदर सरस सरल
हृदय का श्रृंगार करदो
नाम सुमिरन श्रवण ग्रहन का
तुम जो कह दो तो
व्याकुलित "र" स्वर हो जाऊँ
प्राण वायु बन देह प्राण की
अनवरत बहने वाली ध्वनि हो जाऊँ  !!

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