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र से रस , 36 , संगिनी जु

!! प्रेम विहर्मत सर्व समर्पण !!

प्रगाढ़ प्रेम प्रगाढ़तम विरह और अति प्रगाढ़तम समर्पण।यही हैं प्रेम की नहीं क्यों कि प्रेम की सीमा नहीं पर प्रेममग्न हृदय की परिसीमाएँ।प्रेमी हृदय जानबूझ कर तो प्रेम नहीं करता ना।हो जाता है क्योंकि यह स्वभाव उसका।उसे कब पता प्रेम के पलने में खेलना शिशु के पलने में खेलने जैसा है जो तनिक सा भी अव्यवस्थित हुआ तो पलट कर गिरने का भय सदैव।पर क्या करे प्रेम विवश है ना प्रेमी।पल पल रोना और पल पल आनंद का अनुभव।सत्य अनुभूति या स्वप्न जाने क्या !पर जो भी बस प्रेम।अति प्रगाढ़ प्रेम है तो विरह भी प्रगाढ़ ही होगा।प्रियालाल जु अपलक समाए हुए पर पलक झपकते ही विहरित हो उठते।ऐसी गहन तड़प ही प्रेम विहर्मत है।भ्रमित से होने लगते प्राण।अति अकुलाए हुए पुकार उठते प्रियतम को और भूल चुके होते स्वहित को।तब प्रियतम कौन ज्ञात ही ना होता।तन्मयता में सर्व समर्पण हो जाता।समर्पण जिसमें मैं खो जाता और याद रहता तो केवल तुम और एक रस झन्कार वो भी स्वहेतू नहीं तत्सुख हेतु प्राणों में मृदुल संगीत करती कि तुम ही तुम और तुम हेतु यह विरह से सर्व समर्पण भरी मधुर यादें झन्कार बनी झन्कृत सदा।एक बार समा कर विरह दे जाओ ये हक तुम्हें आज भी है पर जीवंत झन्कारें तुम्हें और मुझे अनवरत बाँधे रहेंगी छनकती झन्कृत होती प्रेम डोर से।ऐसी तीव्र उत्कण्ठा में तीव्र रस झन्कार जो ध्वनित रहेगी तुम में मैं बनकर और मुझमें तुम बनकर।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे उस अति प्रगाढ़ प्रेम की
छन छन मृदु आगाज़ तरंग कर दो
अति गहनतम विरह से सींचित
प्रेम रस अश्रुपूरित फुहार बहे
तुम जो कह दो तो
सर्व समर्पण कर सदा
तुम्हें याद करूँ खुद को भूलूं !!

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