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र से रस , 21 , संगिनी जु

!! मधुर प्रेम क्रंदन !!

सदा मिल कर भी ना मिले हुए से।गहन स्पंदन सिहरन सदा समाए हुए होने से परस्पर।परस्पर अभिन्नता और परस्पर एकरसरूपरंग प्रियालाल जु।अद्भुत रस डुबकियाँ ही इनका खान पान जीवन और इस गहनतम हृदयाकिंत रस प्रीति की अनछुई मधुर रस तरंगें युगल मुखकमलों व चाल पर सदा लहराती हुईं।अहा !!पर फिर भी ऐसा एक मधुर क्रंदन सदा श्रीयुगल के प्रेम में बसता है जिससे मिले हुए भी वे निरंतर अश्रुप्रवाह करते रहते हैं।मिल कर भी मिलने की और अत्यधिक गहन मिलन की भावझन्कारें क्रंदन भी उनके गुलाबी कपोलों और रसकमल हृदयों को झन्कृत करती रहतीं।डूबते उतरते समाते हुए भी आखिर यह मधुर क्रंदन क्यों ?कभी अट्टहास लिए आनंद से भरे तो कभी अपने को परस्पर सुखदान ना दे पाने के लिए अनाधिकारी पाते और सदैव परस्पर सुख ही चाहते रहने में मधुर प्रेम क्रंदन जो सदा गहराता ही रहता युगल में।चाह कर या अचाह से नहीं अपितु स्वतः बहता प्रेम रस एक दूसरे को देख देख ना रीझते और अश्रु बहाते अनवरत जो मिल कर भी ना रूकते और अमिलन में भी भीतर भरे रहने का इकरारनामा बन बहते।परस्पर सुख हेतु कण कण में समाए हुए।जैसे अगर प्रिया जु अन्यत्र कहीं भावावेशित हैं और प्रियतम कहीं और तो उनके प्राणों में पीतवर्ण और नीलवर्ण रसतरंगें सदा लहरातीं रहतीं और जहाँ वे भावावेश में विराजित होते वहाँ कण कण में अपने रोम रोम से परस्पर नाम ध्वनि सुनाई देती रहती और अश्रुप्रवाह होता निरंतर।मोहन कहते मैं प्रिया हूँ और प्रिया जु कहतीं मैं ही मोहन।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे वो मधुर रस झन्कार कर दो
जो सदा तुम में उनको और
उनमें तुमको सुनाई दें
तुम जो कह दो तो
प्रेम का मधुर क्रंदन बनूं
व्याकुल सदैव नयनों की कोर से
रिसता हृदय की गहराईयों में
तुम में तुम को निहारता अश्रु
जान ना सके कौन किसमें
सदा अग्नि सी उज्ज्वल रहूं
मधुर रस के भावों को सुनूं !!

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