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र से रस , 23 , संगिनी जु

!! अप्रतिम सुखसार प्रतीक्षा !!

क्या हुआ जो नहीं मिले पर सदा मिले तो हैं ना।देहाध्यास भूल प्राण तन से छूटकर जब आत्मा परमात्मा का मानसिक मिलन हो चुका तो देह के कहीं भी होने से कहाँ फर्क पड़ता है।प्रेम में रंजिशें रिवायतें कहाँ।हाँ !रह जाती है तो केवल प्रतीक्षा।प्रतीक्षा भी शिकवे शिकायतों से परे की अवस्था प्रेम में।जिसमें एक रस है एक व्याकुलता कि लम्बे इंतजार के बाद जो मिलन होगा उसमें बिछुड़ना ना होगा।प्रतीक्षा में एक टीस झन्कार बन आस बन उठती कि यह दूरी क्यों ?केवल प्रेम में गहराने के लिए।सदा गहराते रहने के लिए।इतना गहराना कि प्रतीक्षा भी मधुर झन्कार बन भीतर नाद का रूप ले लेती है।प्रतीक्षा में भी गहन रस क्यों ?क्यों कि जिनकी प्रतीक्षा है जिनसे मिलन की आस बंधी है प्राणों में वो यूँ बिन मिले छूटेंगे भी नहीं अपितु प्रेम तृषा को बढ़ाते गहराते रहेंगे।प्रतीक्षा करते देह का श्रृंगार होने लगता है।हृदय मंदिर में प्रियतम की प्राण प्रतिष्ठा जो हो चुकी।अब देह वृंदावन और हृदय निकुंज हो चुका।पल पल की प्रतीक्षा में प्रियतम के लिए सजना संवरना अनवरत चलता रहता है।मन मस्तिष्क सबमें से विकारों व विचारों को श्रद्धांजलि देती रहती यह प्रतीक्षा जो दीपक की लौ सी प्रकाशित होती और अंधेरों को चीरती हुई प्रियालाल जु की अप्रतिम छवि को नेत्रों से निहारते रहने के लिए पल पल पिघलती रहती।प्रतीक्षा रूपी झन्कार जिसमें सब धुल जाता और अंतर्मन में सुनाई देती मधुर नाममाला 'प्रिया''प्रियतम' 'प्रिया''प्रियतम''प्रिया''प्रियतम''प्रिया''प्रियतम''प्रिया''प्रियतम''प्रिया''प्रियतम'मिसरी जैसे कानों में घुलती अधरों से खुसफुसाती रोम रोम में थिरकती सिहरन कंपन बन रंगों में बहती प्रतीक्षा। इस झन्कार में और सब ध्वनियाँ क्षुब्ध होती दम तोड़ देतीं और प्रेम गहराने से मिलन की आस सच होने की प्यास प्रतीक्षा को भी मधुरातिमधुर बना बुदबुदाती गुदगुदाती सी रहती कि अब तब उस पल क्षण क्षण में वही।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इस प्रतीक्षण प्रेम की
"र"से रस झन्कार कर दो
जो तुम तक ना आ सके
उनके जीने की आस कर दो
तुम जो कहाँ दो तो
प्रतीक्षा में भी झन्कार बन
तुमसे मिलन की प्यास बन
गीत मधुर नाम धुन बन
हृदय मंदिर में बुदबुदाती रहूँ  !!

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