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र से रस 20 , संगिनी जु

!! प्रेम रस बूँदिया !!

प्रेम राज्य की प्रेम बरसात और प्रेम रस बरसात की झर्र् झर्र् प्रेम धरा व प्रेम रसयमुना जु की प्रेम सतह पर गिरतीं मधुर झन्कृत प्रेम रस बूँदियाँ।प्रियालाल जु जहाँ जिस प्रेम धरा पर प्रेम रस विलास की गहन रासलीलाएँ रचते उस प्रेम राज्य में अप्राकृत ऋतुराज जो श्रीयुगल जु के रसाधार पर कृतार्थ होते और प्रेम रस प्रवाह से ही झन्कृत होते रसरूप झरते धम धम करते श्यामल घणमंडलों से और दम दम दमकती सुनहरी लाल बिजुरिया से।दामिनी और घन के रसस्वरूप मिलन से बहती झन्कृत रस बूँदें और गिरतीं बेल पत्रों पर उन्हें झन्कृत करतीं।मिलन होता सिहरती तमाल लताओं का और झन्कार उठती कण कण से इन रस बूँदों की छुअन से जो पराग बन नवपुष्पों के अंकुर बन झरते मकरंद रस कणों में जिसके ऊपर मंडराते रसभ्रमर।अहा ! एक अद्भुत अनूठा प्रेम रस सदैव झरता रहता प्रेम राज्य में।अप्राकृत और गहनतम प्रेम जो स्वरूपतः श्यामा श्यामसुंदर जु का ही रंगमंच भी है और उन्हीं के सुखहेतु सदा निर्झर भी होता उन्हीं की भावतरंगों से।जैसे यह मिलन घन दामिनी का व धरा अंबर का और तमाल लताओं व पुष्प भ्रमरों का तो हमें प्रतीत होता पर इन प्रेम रसतरंगों का गहनतम व आधार श्यामाश्याम जु का ही मिलन सांकेतिक स्वरूप।उनका ही मिलन रसरूप बरसात से बहता और रसबूँदों के अति सुमधुरतम स्पर्श भर से मयूर मयूरी हंसहंसिनी और कई वन्य जीव पक्षी मिलन उत्कण्ठा लिए झन्कृत हो उठते।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
इन रसबूँदों की रसमंत्रमुग्ध
मिलनोत्सुक व्याकुल रस झन्कार बनूं
तुम जो कह दो तो
पल पल थिरकती
युगल श्रीयुगल रस पिपासुओं को
सिहरन स्पंदन देती
रसिकों के हृदय मंदिर में
निरंतर निर्झर् झर् झरती रहूँ !!

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