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पद्मरागिनी मधुरा-श्रीश्यामा, उज्ज्वल श्रीप्रियाजु ,संगिनी जु

*पद्मरागिनी मधुरा-मधुरा*


"जहाँ लगि उज्ज्वल निर्मलताई,सरस स्निग्ध सहज मृदुताई।

मादिक मधुर माधुरी अंगा,दुर्लभता के उठत तरंगा।।"

विपिन विपिन  झरती सरस मधुर कोमल ध्वनियाँ...युगल श्रृंगार-अलंकार की मधुर अति मधुर आती खननखन- छननछन ... 

हृदय के तारों सनसनाहट से बिंधती समीर जैसे पुष्पों की मधुता भरी धड़कनें बह रही हो । 

अद्भुत मधुर , अति मधुर ध्वनियों का ऐसा सींचन कि...कंज-पंकजों  की कुँजन भी फीकी ही लजाती श्रीप्रियाजु की मधुरता के श्रृंगार में... प्राणप्यारी - अतिसुकुमारी - कोमलांगी - सरोजिनी - कुमुदीनियों को मधुरत्व रस दान करने वाली महासरस भावप्राण-राजेश्वरी -श्रीसर्वेश्वर श्रीप्रियतम की हिय सर्वेश्वरी - आराधना की पराकाष्ठा - आराधिका - आराध्या - साध्या - राधिका - श्रीराधिका प्राणाधिका जू ...श्रीराधिका श्यामाप्यारी जू का पद्मराग अति कोमल स्वरूप ऐसा अप्रकट अनिवर्चनीय सार अनुभव है कि...  कोमलतम कोमल स्वयं पद्म ही उस मधुता को अनुभवित करने ... और मधुर अनुभव से हुई सरस् जड़ता को भंग कर कुछ कहने में असमर्थ है । 

सखी ,  नित नव हरित-विपिनधरा का ऐसा ललित श्रृंगार हो रहा है कि काँचना-स्वर्णमयी चौन्ध से भरें नयनों में करुणामय झरनों के बहने पर खिलते दोऊँ *प्रेम-रस फूल* मधुर रसमय दोऊ प्यारीप्यारे  पुलकित होते दो मधुरतम फूल... प्रेमार्थ...सुखार्थ... श्रंगारार्थ 


भावकुमुदिनियों की कुंज में सखियों संग मधुर सरस कुमुदीनियों की स्वामिनी श्यामा जु...अहा !!

आलि री... चंद्रोदय पर जो कूमुदिनी बाँवरी हो चन्द्रिकाओं की मधुर झारियों में विलसित होकर मुस्कुराती हुई अपने राग को सम्पूर्ण माधुर्य में भीगा पाती वहाँ कूमुदिनी चन्द्र सँग में पूर्णता का श्रृंगार धारण करती और इन अद्भुत कुंज-निकुंजन की राग मदमयता सरसता से पद्मिनियों का राग अबाध रूप से गहन अतिगहन होता जाता... यहाँ सरसता का भोग ही और रस-पिपासा के मूल में छिपा है । यहाँ श्रृंगार उत्कर्षता पर विराजित होकर श्रृंगार के मधुर सरोवरों को और और और सजा सजा कर पद्मराग के झरते अभिमान को नित ही यहाँ की मृदुलित रेणुका  की कणिकाओं की कोमलता से और लज्जित करता है । 

*नित्य-बिहार अखण्डित धारा,एक बैस रस जुगल बिहारा*

अनन्त पद्मश्री के सौंदय को तिरस्कृत करती रसविहार की मञ्जरी-किंकरी सोहिनी सेवा से रेणुका के श्रृंगार का अवसर खोजती है ....ऐसी नित नव हरित फूलित धरा को नित्य श्रृंगारित करते और महकाते अपनेे प्रेमोत्सव से श्रीयुगलप्रियालाल ...

पद्मिनियो के अनन्त समूह सदा श्री माधुर्या किशोरी सेवा होने को नित्य लालायित रहते ...फुलनि श्रीप्रिया की  मधुरता का बिन्दुमात्र समस्त को कोमलत्व-मधुरत्व में भिगो देता है ...फूलों की मधुरता कोमलता निज नहीं है यह उन्हें पराम शक्तियों से प्राप्त हुई है , और सर्व मधुरतम शक्तियों को श्रीकिशोरी केंकर्य सेवा से यह मधुरता मिली है ...जैसे वेणुका श्रीकिशोरी जू से प्राप्त मधुरता से समस्त को आह्लादित करने में समर्थ है । 

निकुंज के खग-पक्षियों की मधुर कलरव में पिपासित प्यारी जु दर्शनार्थ समूची मधुरतम सुगन्धिनीयों से लबी-सजी , पद्मराग की फुलेरों से सजी पद्मिनियों की समस्त सुंदरियों से  सुशोभित पद्मराग-निकुंज...

पद्मिनियों की समस्त विभिन्न कुमुदिनियाँ यहाँ अपनी सम्पूर्ण अप्राकृत माधुर्यताओं को समेट सजाती है श्रीप्यारीप्यारे जू के अनुराग को । ....दोऊँ साँचे फूल... फूल से फूलते मनहर चकोर प्रियतम ...फूलों सी चन्द्रिकाओं को बिखेरती नवफुलनि श्रीप्रिया जू की सेवा में अनन्त सेवाओं की लालसा में सजी फूलों की यह पद्मराग निकुँज ...  ...

 सम्पूर्ण माधुर्यता को बटोर दिव्य रत्न मणियों से ढकी रसबिखेरती और सरस अति सरस फुलनियों को भी लजा रही प्यारीजु की अंग कांति की मधुरता... उनकी अति सघन कोमलता ...फूल इन श्रीश्यामा जू के स्पर्श में सँकोचित रह्वे ऐसी कोमलता भरी घनी गहन सरस् शोभा श्रीश्यामा जू की ...  अर्थात हृदय नित्य फूलों से गहन मधुरत्व को समेट श्रीप्रिया रेणुका की चाकरी हेतू उन्हें पुकारें तब ही अति सरस् कोमलिनी - कूमुदिनी - रसप्रमोदिनी - मनहरिणी - नितनवराग-रँगरंगिनी मधुरहर्षणवर्षिणी - श्री गौरांगी  प्रफुल्लांगी प्रियतम हिय वासिनी परमोज्जवले दामिनी जू का माधुर्य की पिपासा हृदय में झर सकेँ , जितनी मधुर तृषा से हिय भीग कर श्रीप्रिया जू की सुगन्ध में भीगा रह्वे उतना सघन भाव श्रीप्रिया स्वरूप हृदय झांक सकें ...निहार सकें ....सम्पूर्ण श्रीप्यारी के मधुरामृत कोमल सुधा भाव श्रृंगार की नव-नव क्यारियों का दर्शन तो प्यारी जू के नित-चकोर श्रीवल्लभ श्रीरमण श्रीकुँजबिहारी स्वयं ही नहीं कर पा रहे ...प्राणों को प्यारी मधु सिन्धु में भिगो भिगो कर श्वांस श्वांस से पुकारिये श्रीप्रिया ...श्रीप्रिया  ...माधुर्या प्यारी हे श्रीप्रिया  ...कोमलांगी मधुरांगी ...रसिली-रँगीली प्राणप्यारी-श्यामा-श्रीप्यारी श्रीप्रिया ...हे श्रीप्रिया ...अपने मधुर स्पर्श से मेरे हिय के किवाड़ खोलों प्यारी श्रीप्रिया जू...

*माधुरी-तरंग रंग उपजत छिन-छिन,रौंम रौंम प्रति सोभा रही है लुभाइ कैं*

मधुर मधुता में सेवार्थ बहने का सामर्थ कर पाती कुँजन की सरस शीतल रसझनक केलियाँ...

शीतल रस से कोमल गुंजार करते भँवर जानते पद्मराग की मधुरता से सघन श्रीप्रिया-पद रेणुका की सुमधुर सुगन्धित प्रभा-प्रफुल्लताओं को...

प्रियतम हिय प्रसून से आती श्रीप्रिया की सरस् महक से तनिक मधुर सेवामयी सुगन्धों में स्नान कर 

...इन सरस् मधुर सुगन्धित रागिनियों सँग तनिक मधुर स्पर्श मेरे पाषाण हिय को शीतल फुलनियों के सरस् रस से अभिषेक करता रह्वे हृदय श्रीश्यामाश्याम की कोमलता से अभिन्न हो भीगा रह्वे तब वह निरख सकें तनिक सी मधुरता श्री सम्पूर्ण माधुर्या जू की । 

मधुरता की निधियाँ सिमटी हुई सेवा करने को व्याकुलित भीग कर सरस् फूल ही हो रही ...इन पद्म निकुंजों में जो खेंच रहीं भृमरों के मन के अनुराग को... फूल ही कर के । जहाँ समस्त निकुँज श्रृंगार ...समस्त द्रुमावलियाँ फुलनियों सी मधुता से भीगी है नित्य ...जहाँ सभी किंकरियों - मंजरियों के सेवाराग से फूलों से शीतल मधुता टपकती है श्रीप्रियालाल प्रेमश्रृंगार में ...

*फूलनिं कौं छाँड़ि-छाँड़ि आवत मधुप धाइ,तन की सुबास अति रही बन छाइ कैं*

चहुं दिश महकती रससनी कुमालित कोमल... श्रीप्रिया मधुर सौरभता में यहीं अनन्त-पद्म-पद्मिनियों के निकुंज और ...और सघन मधुरता से सरस् मधु-वर्षा से हो बहते जाते श्रीप्रियाजु के श्रृंगार में...

*रूप की अनूप कांति कैसैहूँ न कही जाति,नख आभा पर चंद गयौ है लजाइकैं*

नख प्रभा पर ही मधुर शीतल आभा बिखेरते चन्द्र-चन्द्रिका लजा जाते जहाँ वहाँ कह पाना सहज कुमुदित माधुर्यता को यह सम्भव कहाँ ..श्री माधुरी जू के माधुर्यता को समेटने का दूसरा कोई पात्र है ही कहाँ... ऐसी मधुरता सम्पूर्ण कहीं भी कहीं नहीं जा सकती जैसी श्रीप्रिया जू में नित्य वर्द्धनमान ... 

माधुर्यता की प्रस्फुरिणी- उन्मादिनी है ही केवल हमारी श्रीप्रिया ...नवघन सँग ज्यों रसमयी पद्म रंजित प्रियतम श्रृंगारित नयनों को मुदित कर पियनैन से ही पग धरती हुई हरिणी...मनहरिणी... बरबस बाँवरी हो जाती री... निहार इस मधुरातीत मधुर-रंजित सुमधुर झाँकी की मदित मदमत्ता में रसमद ... कौन  बाँवरी ...??? 

केवल कोई सखी ही नहीं री,समूची कुँज झर-झरा जाती... इस सघन मधुरता के सँग से !

पद्म...जो विधाता की प्रथम विधि वह भी इन रसीले नैनों की मधुर कोर को निहारने में असमर्थ... ... ...पद्म-पद्माकर अर्थात स्वयं कोमल मधु-माधुर्य जब निहार नहीं पा रहा इस मधुरातीत चितवन की शोभा को तब मधुसूदन स्वयं कैसे निहारें ...वह तो इस मधु के याचक है 

*'हित ध्रुव'पिय मन यहै सोच रहै दिन,ऐसी सुकुमारी क्यौं हूँ देखी न अघाइ कैं*

ऐसी मधुरता है जो श्रीप्रियाजु से ना झरित हो तब मधुरा श्रीप्रिया को कौन मधुर सुख देवे...सारिका है इस मधुर सुरभित सरस पद्मवन में झूमती...श्रीप्रियाजू । ऐसी सारिका जिनकी स्पर्शित शरदीय-बासंती शीतल कलरव से कुँज स्वभाव और स्वरूप दोनों भूलने लगती... !! सुमधुर मधुरा श्रीप्रिया मधुर मदनमोहन भी मोहित और बरबस नित्य मोहित हो ही रहे...नित्य सँग पर सहजसंगिनीजु का माधुर्य आज भी उनसे अछूता हो रहा... ... ... जैसे चकोर प्रियतम ने कभी इस मधु इन्दु का दर्शन ही न किया हो , एक मात्र आस्वादक ...एक मात्र भोगी इस मधुता के श्रीप्रियतम नित्य ही निर्भोगी - तृषित रहते ऐसी सघन गहन अति गाढ़ मधुता यह माधुरी श्रीराधिका जू !!

इस धरा पर वैसे कोई पद्म दर्शित नहीँ जैसे पद्मकुँज में लज्जित सेवित यह अनन्त पद्म... यहाँ कमल की उपप्रजातियाँ भी चित्ताकर्षक हैं...कमल और पद्म में उत्पति भेद है...धरा के कमल मल में खिले सौंदर्य है... अधरा श्रीविपिन के उज्जवलित नवनीत हृदय पर खिलते कुमुद-कुमुदिनियाँ पद्म-पद्मिनी युगल रस में युगलसेवार्थ युगलमिलन की मधुर सुरभ से प्रकट हो रहे... भाव ही यहाँ जनक शक्ति...मधुर भाव... ... ... युगल मधुरता से प्रकट यह विपिनराज वासित पद्म परन्तु इन अनन्त पद्मों का माधुर्य क्षीण हो रहा श्री पद्मिनी मधुरा श्रीप्यारी सन्मुख !! विपिनराज श्रीवन इसी युगल की मधुरता से ...इन्हीं युगल मधुरता की सेवा का युगल रसभावित हृदय है... 

ऐसी रस से ओतप्रोत मधुरातिमधुर  रसध्वनियों में लाल रंग में सनी रसीली मधुरा श्यामा जु...यह मधुर रव प्रिया सेवादर्शन तृषा से मधुसूदन के हृदय से अधरों पर झरती रजनी...रव और अश्रु में ...नैन और अधर से बहने का भेद भर है...अधर से बहती मधुरता पूर्ण शीतल है...अश्रु में उष्णता नित्य तत्व है... उसके प्राकट्य में शक्ति ही ताप है... भले अश्रु का स्पर्श शीतल होवें परन्तु मूल में निज अभाव से करुणामयी आद्रता ही है ।

और श्रीप्रियाजु के अनुभव में प्रियतम उर में बहती मंद झारी अधर झरता वेणु रव... जिसकी उत्पत्ति का मूल श्रीदामोदर के हृदय में प्रियाजु का नित्य स्मरण... ... ...

सखियों संग नित्यविहारिणी श्यामा जु भावकुंज के सुगम्य-सुरम्य पथ से खिलखिलातीं हुईं कदम्बों की शीतल ओट पुष्पाविंत फुलनियों से सुसज्जित अनंत घेरों में खिली पद्म क्यारियों के मध्य पधारी हैं...स्वेद अणिमाओं से झर-झर टपकता श्रीप्रियाजु दर्शन से पद्म-राग बरसता हो जैसे ...मधुता की अनन्त धाराएं बरसने लगती हो ज्यों...

पद्म की मधुरता लज्जित करती श्यामा जू की मधुरता...निकुंज की सेवामयी पद्मिनियों को मधुरता दे रही है... ... ...

समूची पद्मिनी-वन अष्ट सात्विक भावनाओं में झूम रही ...एक-एक पद्मिनी प्रियाजु झाँकी को उतावली होती फिर श्रीप्यारी जु की मधुर शोभा-प्रभा-आभा से ही सर्वस्व खो देती... सम्पूर्ण पद्मनिकुंज श्रीप्रिया माधुर्य में मदमयता की वर्षा में भीग गई है...अहा... ! 

श्रीप्रिया माधुर्य...अनन्त की अनन्त पिपासाओं की एकांकी स्वरूप निधिसार मधुता सरसता... और जिस अनन्त स्वरूप श्रीप्रभु के हिय की यह तृषा है... वह भी इस सघन माधुरी का सम्पूर्ण सँग करने में सर्वथा असमर्थ से... श्रीकिशोरी कृपा-करुणा से ही वह अपनी प्राण सँजीवनि का आस्वादन प्राप्त कर पाते है ।

पीतवर्णा श्यामा जु ने सुनहरी गोटाजरीदार लाल साड़ी और सुनहरी आभूषण पहने हैं जिनमें अनन्त कोमल श्वेत-पीत-गुलाबी फूलों का भी अनूठा श्रृंगार धारण है ... फूलों से सजी अति गौरी प्यारी जू नख से शिख तक ललित पद्मअंगों में ऐसे सुशोभित हैं जैसे बालसूर्य प्रभाती शर्मीली रश्मियों संग खेल उनके रूपमाधुर्य का लालित्य पान कर रहा हो...

अंग- सुअंग पर अंगीकार किया  भूषण-आभूषण जैसे श्यामा जु की मधुर अट्ठकेलियों का आस्वादन कर स्वयं के स्वभाव को बनाये रखने में कौन प्रीतरीत से थिर है... ... ...भूषण हुए प्यारे कब तक आभूषण ही रहते...कानों के झुमके कपोलों का  माधुर्य... ! ...शीशचंद्रिका मस्तक और केश सुगन्ध का... ! ...बुलाक की लटकन नासिका की सर्वातीत मधुर प्राणरस श्रीप्रिया श्वसनामृत की सुरभता में भी अधरों का उन्माद स्पर्श करने को आतुर... रहती ! ...वेणी की कलियाँ कंठ का सँग कर नृत्य के रहस्यों में डूब गई... ! ...नवघन श्रृंगारित अलकें कजरारे नयनों पर ढुरक कर श्यामा जु की रूपमाधुरी का पान कर रही... ! ...श्वेत फूलों सँग सजी कंगन चूड़ी व लाल और पीले फूलों सँग कटिकिंकणी उनके नाभि उदर कमर व नितम्भों का श्रृंगार बनीं परस्पर परस-स्पर्श के उन्माद को संभालने में लजा रहीं... ! ...

पदकमलों में नन्हीं श्वेत कलियों सँग नूपुर और नीले-लाल फूलों सँग सजी पायल स्वयं को पकड़ कर भी छमछम छमछमा रही... ! 

*प्यारी जू की भौंहनि की सहज मरोर माँझ,गयौ है मरोरह्यौ मन मोहन कौ माई री*

 "[{स्वयं को संभालते यह आभूषण कि कहीं स्पर्श न हो जावे हमारा और श्रीप्रिया का...कौन सौभाग्य पाता श्रीप्रिया के श्रीअंगो की ऐसी सेवा का...वह नहीँ जो स्पर्श का भोगी है...वह पाता जो स्पर्श में अस्पर्श का जीवन है... छूने को उतावले सब पीछे छूट जाते...सेवा के उतावले स्वगत अभाव को जीवन कर आगे बढ़ते बढ़ते मधुर होते जाते...और अतिमधुर हो श्रीप्रियाजु तक मधुर श्रृंगार हो पाते...और श्रीप्रिया  सुमधुरा सर्वस्वश्रृंगारा सौम्या को सजाने पर भावयात्रा पूरी नहीं होती अपितु यह आरम्भ है भाव का... मधुरता को मधुरता स्वीकारने का...जैसे पद्म और स्वर्ण के सँग में हानि पद्म की ही क्योंकि अति कोमलिनी हैं वे...और पद्म-फूलों के आभूषणों से भी श्रीप्रिया के कोमलांग की मधुरता को पीड़ा न हो ऐसी सेवा उत्कृष्ट भावनाओं की सिद्ध हो पहुँचती...हम निरीह भोगी सब पीछे छूट जाते हैं }] 

...प्यारी तो इन अतीव मधुर कुंजो के सम्पूर्ण मधुर भाव से अतीव सघनसार मधुरमयी... मधु की स्वप्न मधुता श्यामा ! हम जीवोंका वर्तमान मधु नहीं है... ! ...क्षार...कर्कश प्रधान जब केवल मात्र मधुर रस रहे... तब उस मधुरता की सहज स्वप्नसुंदरी कभी प्रकट हो... तब वह स्वप्न सुंदरी निज प्रिया सेवा में मधु को ले जावें... वहाँ संगम हो मद-मधु-मधुरा-मधुवन... 

सभी मधुर रसीली सखियों के रूपसौंदर्य अतीव सार प्राणस्वरूप श्रीप्रिया की मकरन्दित मधुर सुरभित वेणी साड़ी सँग झूलती एक छोर जैसे हिय पर सुसज्जित लाल कंचुकी  सँग कमर से सट गया है... जैसे वह लहराकर श्रीप्रिया की क्रीड़ादि में बाधक नहीं होना चाहती...श्रृंगार हो सरसिली प्रियासुख में खेल को सजाना चाहती...श्रीप्रिया वेणी...

*ऐसैं प्रेम रस लीन तिलहू ते भये छीन,जैसैं जल बिन कंज रहै मुरझाइ री*

मधुरा-माध्वीजु सखियन संग भावकुंज में खेल खेल रहीं हैं ...

जैसे कुसुमों सँग पद्मिनी झूम रही हो... इस खेल से रूनझून-रूनझून - झमझम - छमछम ...सरसीली रसध्वनियाँ भ्रमरशिरोमणि श्यामसुंदर जु को और आकर्षित कर रहीं हैं... सम्पूर्ण केलि मण्डल के एक मात्र भोक्ता-दृष्टा प्यारेजु... ... ...

क्रमशः सभी सखियन के उपरांत श्यामा जु की श्यामल कजरारी काली मृगनयनी पद्मराग दामिनी श्रीराधिका जू की बंकिम दृगमाधुरी पर श्याम रँग की पट्टी बांधी जा रही है... श्यामा जु नीलमणि की सौंदर्य छवि को नयनों में बसाए नयन मूंद लेतीं हैं...

नयनों में नीलीमा लिए झुकती पलकों पर सखी श्याम पट्टी बड़ी कोमलता से बाँध देती है और क्रीड़ा खिलती है भीतर बाहर श्याममिलन की...

मुदित नयनों से श्रीप्रियाजु श्यामसुंदर से मिलती हैं यूँ कि सभी सखियों को युगल सँग क्रीड़ासुख हो...मुदित नयनों की मिलन पिपासा कितनी मधुर हुई यह समूची रजनी सिमटी पद्मिनी के उर में छिपे भृमर जाने ...

*धीरज न नैंकु धरैं नैंना नेह-नीर ढरैं,बिवस पगनि ओर ढरह्यौ सीस जाइ री*

अनिवर्चनीय मधुर पद्मरागिनीजु हियकेलि...शब्दातीत रसभाव मिलन सुभग-सुरस-सुमधुर-सुस्पंदना-सुरभित-सरसित नित नव-नित सु-तृषा... 

*व्याकुल विहारी लाल चितै अंक भरे बाल,पाये प्रान तब'ध्रुव'मृदु मुसिकाइ री*

जयजय पद्मरागकुंजविहार !!

सखी री...जैसे सूर्य अपनी रश्मियों से घिरा हो और हम दरस केवल रश्मियों का ही कर पाएँ...ऐसे ही ये कुंज पद्-पद्मिनी के संयोग से ऐसे प्रकाशित कि दरस केवल सरसीली शीतल पद्मिनियों की चन्द्रप्रभा का ही सुलभ होवे री...आह...सम्पूर्ण कहाँ निहार सकूँ री...कमल की पंखुड़ियाँ क्या जानें सम्पूर्ण कमलिनी की मकरंदिका मादकता को...बस ओस की बूँद भर जितना ही महक पातीं...आह... ... ...

जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !!

श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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