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सोहनी महिमा

---------------*सोहनी महिमा*------------

                 ।।दोहा।।

रे मन नवल निकुंज की, सुमिर सोहनी प्रात।
लपटी प्यारी चरण रज, लसत सहचरी हाथ ।।१।।

अहो सोहनी सोहनी, यह मति मौको देहु।
अति अधीनता दीनता, पद रज सों नित नेहु।।२।।

तो समान कब सहचरी, मोहू कौ अपनाय।
नव निकुंज रति माधुरी, प्राप्त सुनावैें गाय।।३।।

विरमि -विरमि हा सोहनी, देखि प्रिया पद अंक।
प्रियतम मन अटक्यो जहां,मेटत तिन्हैं निसंक।।४।।

श्री प्यारी पद रैनुं में, उमगत लोटत लाल।
कोमल कर चुटकीनु लै, तिलक बनावत भाल।।५।।

कण-कण में जा रेणु के, बसत लाल के प्रान।
हाय सोहनी ताहि यों , साधारण मत मान।।६।।

अहो सोहनी सोहनी , यह न सोहनी रीति।
मो प्राणन की प्राण रज, ता संग करत अनीति।।७।।

कण -कण पै वारौं यहाँ, कोटिन तन-मन-प्रान।
सो रज दूर न डार तू, नेकु निहारौ मान।।८।।

अवसि झारि जो डारिबौ, यह रज प्राण अधार।
तौ मो तन-मन-प्राण में, हिय में, जिय में डार।।९।।

कोटि विश्व ऐश्वर्य सुख, नहिं जु एक कण तूल।
सो रज तोकौं खेल है,मेरी जीवन मूल।।१०।।

हरि-हर विधि ललकत रहत, लहत नहीं कण एक।
ताहि झारि यौ फैंकिवौ, तुम्हें कौन यह टेक।।११।।

इतने हू पर सोहनी, लागौ प्यारी मोहि।
अहो कौन यह मोहिनी, लेत जु प्राणन मोहि।।१२।।

मो प्राणन की प्राण रज, तासन करत अनीति।
तदपि सोहनी तोहि में, बाढ़त मेरी प्रीति।।१३।।

रसिक सहचरी करन कौ,पायौ तुमने प्यार।
तेहि मद माती चलत हौ, नीति अनीति बिसार।।१४।।

याही सौं प्यारी लगौ, जदपि करत विपरीत।
छकन छकी रति केलि की, सुन सहचरी मुख गीत।।१५।।

अहो सोहनी मोहिनी , सर्वोपरि यह प्रीति।
यह रस मादक है जहां,तहां न नीति अनीति।।१६।।

यह रज, यह गति , यह रहनि, यह सुहाग यह भाग।
देहु सोहनी करि कृपा ,यह अपनौ अनुराग।।१७।।

तुम मेरे हाथन परौ, मो मन तुम तन माहिं।
एकमेक ह्वै सोहनी,चरण रेणु बिलसाहिं।।१८।।

मैं रज मिलि रज हौऊँगी, तुम जु बुहारौ आय।
तुम मोहि ठेलत चलौगी,मैं तुम सों लपटाय।।१९।।

प्यारी प्रीतम चरण रज,दुर्लभ देहु मिलाय।
धन्य धन्य वे रसिक जन,मन तन कुञ्जन आय।।२०।।

अहो सोहनी मम हृदय,रहै तोहि लपटाय।
तुम्हैं हाथ लै सोहनी,भवन बुहारत गाय।।२१।।

या तनहू में प्रीति सों,तुम ही कों दुलरात।
श्री बन वीथिनु रमत हैं,लिये सोहनी हाथ।।२२।।

तिन चरणन में सोहनी,देहु प्रीति अति मोहि।
हित भोरी यह आस धरि,दिन-दिन सुमिरों तोहि।।२३।।

नित्य भजन हेतु सोहनी महिमा । भोरी सखी जु की ।

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