*शुद्ध प्रेमविलास मूर्ति श्रीराधा*
समस्त लोकों के समस्त प्रेम भावों से अतीत है श्री ब्रजपरिकरों का निरुपाधिक प्रेम । निरुपाधिक अर्थात् उपाधि रहित । ऐसो प्रेम जिसे न किसी रूप की न गुणादि के आश्रय की अवलंबन की कोई आवश्यकता है । प्रेम स्वयं परम समर्थ है । बाह्य रूप-सौंदर्य-गुण आदि कारणों से उदित होने वाला भाव प्रेम कदापि नहीं है । निरुपाधिक प्रेम न कारण से उत्पन्न होता है न कारण नष्ट होने पर समाप्त होता है। वरन यह तो प्रतिक्षण वर्धमान है । रूप गुण आदि प्रेम के हेतु नहीं वरन प्रेम इनका हेतु होता है । प्रेम ही प्रेमास्पद में अपार गुण रूप दर्शन कराता है ।समस्त ब्रज परिकरों के हृदय इसी निरुपाधि प्रेम से आप्लावित हैं । परंतु श्रीगोपांगनाओं का प्रेम इस निरुपाधि प्रेम की भी अति उच्च अवस्था है । क्योंकि इनके प्रेम में माधुर्य भाव की मधुर सुगंध सुवासित है । माधुर्य का तो आधार ही संपूर्ण समर्पण है इसी कारण इनका प्रेम संपूर्णता से संपूर्ण सेवा का साधन हो जाता है । इन समस्त कांताभावमयी श्री गोपांगनाओं की मुकुटमणि सिरमौर परम उद्गम आधार स्वरूपा परम आराध्या परम आदर्शतम प्रेम पयोधि श्री श्री नित्यनिकुंजेश्वरी रासेश्वरी श्रीकृष्ण हृदय विलासिनी प्रेम तरंगिणी प्रेम विवर्धिनी श्री गांधर्विका हैं । समस्त गोपागंनाओं के प्राणों की आधारस्वरूपा यही श्रीमादनाख्य स्वरूपिणी श्रीश्यामप्रिया नवलकिशोरी जू हैं । इन्हीं श्रीकृष्णा के अनन्त प्रेमसुधार्णव के रस बिंदुओं से ये समस्त कृष्ण नायिकायें रससिक्त होकर श्रीरसिकरसाल रसिकशेखर रसिकशिरोमणि को रसदान किया करतीं हैं । ये समस्त ब्रज नायिकायें महाभावसिधुं की ही बिंदु होने से परम प्रेम भास्कर की रश्मियाँ होने से महाभाव स्वरूपा ही हैं । अनन्त अगाध अपरिमित अद्वितीय प्रेम की अनन्त आकर परम उज्जवलतम रस की सुधामूर्ति प्रेम त्याग और समर्पण की चरम पराकाष्ठा श्रीनिकुंजेश्वरी के श्रीचरणों की महाभावमयी श्री नख ज्योत्सना से प्रकाशित होती हुयीं आलोकित होती हुयीं ये श्री ब्रज सुंदरियाँ उसी महाभाव रस में नित निमज्जन करातीं हैं श्रीनन्दनंदन को । श्रीकीर्ति नन्दिनी की उज्ज्वलता के रसाणुओं से जगमगाती झिलमिलाती ये रस रश्मियाँ स्वसुख की गंध से भी अपरिचित हैं । मात्र प्रियतम सुख ही स्वसुख इन रसमालिकाओं का । प्रियतम सुख हित प्रियतम सेवा ही स्वरूप इनका । प्रेम माधुर्य स्वतः ही ऐश्वर्य को आच्छादित कर लेता है । ऐश्वर्य को विस्मृत नहीं करना पडता वरन प्रेम प्रकट होते ही स्वतः ही वह निस्तेज हो जाता है । माधुर्य के सन्मुख ऐश्वर्य की गति ही नहीं है । श्री ब्रज वल्लरियों के प्रेम सिक्त चित्त को श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य स्पर्श भी नहीं करता । मधुरभावापन्न ब्रज वनितायें निज प्रेमरस सौंदर्य मकरंद संचित देह नलिनों को प्रियतम श्यामसुन्दर रूपी मधुकर को समर्पित कर प्यारे की प्रेममयी रससेवा कर निज तन मन को सफल करती हैं । उनकी यह रसमयी सेवा भी श्रीश्यामस्वमिनी के कृपा कोर से ही संभव हो पाती है । कृष्ण मधुकर इन रसीले रसपुष्पों के मधुपर्क का आस्वादन भी इनकी परम आधारा मूल स्वरूपा श्रीअलबेली जू के सुखार्थ ही संपादित करते हैं । उन्हीं की कृपा का आश्रय लेकर वे मधुमय मधुकर इन सुरभित रस कलिकाओं के परागकणों से अपने हृदय मंडल को रंगते हैं । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी
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