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तृषित भाव , मृदुला जु

बाहर खोकर भीतर पाना है तृषित । बाहर नीरस भीतर रसधारा है तृषित ।यहाँ होकर भी न होना है तृषित । बाहर शून्य भीतर स्पंदन है तृषित । बाहर मृत्यु भीतर जीवन है तृषित । बाहर धनहीन भीतर धनवान है तृषित । बाहर पर भीतर स्व है तृषित । बाहर स्वतंत्र भीतर परतंत्र है तृषित ।बाहर नीरसता का अभिनय करता भीतर रसित है तृषित । बाहर कठोरता का आवरण लिये भीतर परम सुकोमल है तृषित। बाहर विरहित भीतर नित्य मिलित है तृषित ।सदा  श्यामाश्याममय है तृषित । बाहर सखि तो भीतर श्याम है तृषित । भीतर सखि तो बाहर श्याम है तृषित ।
परम सुकोमल पुष्प युगल हृदय का जो न जाने कहाँ से छिटक आ गिरा धरा पर नाम है तृषित । अपनी सुकोमलता को जगत से बचाने की प्यास है तृषित । न जाने क्यों गिरा ये पुष्प छिटक धरती पर । भावरसधारा से आप्यायित है तृषित । अपार भावराशि है तृषित । एक अति कोमल पुष्प जो अपने हृदय में युगल मकरंद को सहेजे समेटे जी रहा दुस्तर संसार में । कभी खिलता कभी झूमता कभी पराग निर्झरण करता कभी गाता गुनगुनाता गीत अपने हृदय संगीत के स्वर बिखेरता महकता रिझाता अपने हृदय में छिपे रस स्रोत जीवन मूल श्यामाश्याम को । कभी उसके नयनों से झांकते से युगल तो कभी वाणी से प्रस्फुटित होते । नित अपने प्राणों के गीत गाता हुआ सा यहाँ होकर भी न होता हुआ सा । कहाँ है तृषित कोई खोजे यहाँ पर वो तो है वहाँ । प्रत्येक प्रतिकूलता को स्वयं पर सहकर सुख को रस को ही मात्र हृदय मकरंद तक पहुँचाने को तत्पर यह कोमल पुष्प है तृषित । पुष्प को स्वरूप ही मकरंद को सहेजे संभाले रखना है । यही तो सखि स्वरूप है । निकुंज स्वरूप है । जो संवर्धित करे सहेजे रस वर्धित करे हृदय पराग का वही पुष्प तो है सखि ।

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