"आज सखी रास रच्यौ राधारमण ने"
सखी आज हृदय की कुंज सजाई है और उसमें अति रंगभीने नव नव भावपुष्प खिल रहे हैं।वे श्वेतवर्ण भावपुष्प सरस हृदय की कुंज की अति शोभामयी सर्वगुणसम्पन्ना गोपियाँ हैं।एक एक सखी ने अनंत अनंत कोटि सुंदर रूप लावण्य चंद्र तारामंडल को लज्जित कर देने वाले सिंगार धारण किए हैं।
अति सुघड़ स्वभाव पुंज की राशि सखियाँ अंग प्रत्यंग पर सरस माधुर्य सौंदर्य से युक्त हार सिंगार किए पुलिन पर सजे उपवन में धाई हैं जैसे एक एक भावसुमन सम्पूर्ण समर्पण का भाव लिए आतुर मन निर्जन वन से उपवन की ओर बढ़ रहा है।
प्रति गोपी श्यामा जु संग पग पग धरा पर मंद थाप संग नूपुर ध्वनि से सुरम्य संगीत की तालें पिरोती आगे बढ़ रही है।मानो प्रत्येक सखी का यही भाव है कि श्यामा जु आज अति प्रसन्न होकर उसकी सेवा याचना स्वीकार कर रहीं हैं।यही प्रेम प्रसादी है आज की शरद पूर्णिमा की रात्रि की।
ताम्बुल भींजन मधुयुक्त पेयरस शर्बत व केसरयुक्त नैवेद्य के अद्भुत सुंदर पात्र लिए सखियाँ तीव्रता से आगे बढ़ रहीं हैं जैसे एक एक ने कर में प्रेम की मालाएँ ले रखीं हैं युगल चरणों में अर्पण हेतु।
वंशी की मधुर ध्वनि की तान पर जब यह अलबेली रूपराशि की स्वामिनियाँ श्यामा जु को घेरे प्रांगण से निकलीं तो रात्रि के चंद्र ने मुखौटा पहन लिया और कामदेव की चाल अति मंद होते होते कहीं खो सी गई।जैसे जैसे सिंगारित ब्रजसुंदरियाँ आगे बढ़ रहीं हैं वैसे वैसे जैसे उनके वस्त्र आभूषणों से उपवन जगमगा उठा है और स्यामवर्ण प्रियतम श्यामसुंदर के आगमन से उपवन का कोना कोना जो श्यामल था अब नवचंद्रमाओं की छटा मनमोहिनियों के प्रवेश से कोटि कोटि राका चंद्रमाओं को लजाता हुआ प्रकाशित हो रहा है।
सखियों संग चलतीं सुकोमल गौरवदनी श्यामा जु पलकें झुकाए उपवन में एक पग धरती हैं तो वह उपवन रासमंडल में तब्दील हो जाता है जहाँ प्रियतम श्यामसुंदर स्वामिनी जु की अनुमति पाकर रास रचाने आए हैं।
श्यामसुंदर नयन मुंदे तब से वंशी बजाते जैसे राधा नाम उच्चारण में मग्न थे अब श्यामा जु की आवन से सक्रिय हो उठे।स्वामिनी के पदनख की छुअन से ही जैसे धरा ने संकेत दे दिया हो और उपवन में कस्तुरी महक सी बिखर गई और श्यामसुंदर जु तो अपलक श्यामा जु का अद्भुत श्वेत सिंगार देख रीझ गए।वंशी को अधरों से भिन्न करना तो दूर वे तो त्रिभंगी चोर जार शिरोमणि जैसे तन मन सब हार कर प्रिया माधुर्य सौंदर्य का नयनों से पान करते छल छल भावतरंगों में बहने लगे।
'पूरी पूरी पूरनमासी, पूर्यो पूर्यो है सरद को चंदा।
पूर्यो है मुरली स्वर कृष्णकला सम्पूरन, भामिन रास रच्यो सुखकंदा।'
सखियाँ श्यामा जु के पीछे पीछे रासमंडल में प्रवेश करतीं हैं और अब प्रतिसखी मधुर मधुर रस झन्कारें स्वतः प्रकट होकर बज उठी हैं।
'तान मान गति मोहन मोहे, कहियत औरन मन मोहंदा।
नृत्य करत राधा प्यारी नचवत आप बिहारी गिड़ गिड तत थेई तत थेई थेई गति छंदा।'
जैसे जैसे सखीवृंद भावपुष्प सम स्वयं को युगल चरणों में अर्पित करती है वैसे वैसे प्रतिसखी एक एक श्यामसुंदर श्यामा सुख हेतु प्रकट होकर रासमंडल की शोभा बढ़ाने लगते हैं।
'रास विलास गहे कर पल्लब,एक एक भुजा ग्रीवा मेलि।
बिच बिच गोपी इक इक माधौ, नृत्यत संग सहेली।'
प्रतिगोपी प्रति स्यामसुंदर जैसे स्यामास्याम श्रीयुगलकिशोर किशोरी के रूप माधुर्य की सराहना करते पल पल भावपुष्प रूप अर्पित हो रहे हैं।
' मनु आकर्स लियो ब्रजसुंदरी। जै जै रुचिर रुचिर गति मंदा।
सखी असीस देत हरिबंसे तैसई विहरत श्रीवृन्दावन कुंवरी कुंवर नंदनंदा।'
ऐसा सुंदर सरद पूर्णिमा का रास रचा है सखी जैसे कोमलांगी किशोरी श्यामसुंदर जु के पदनख से लेकर उदर पर छिटकती खनकती किकणियों तक व उनकी वेणी से लेकर चंद्रिका की फबत तक ने अनंत अनंत गोपी रूप धर श्यामसुंदर जु संग रास रचाया हो और फिर एक एक कर यह सब चूड़ी कंकण नूपुर करधनी की खन खन सम श्यामा जु में समा जाती हैं।
जाने कितनी बार अनंत काल से अनंत काल तक रासमंडल का कण कण यूँ ही संगीतमय होकर वंशी वीणा की मधुर तानों पर थिरक रहा है और श्यामा श्यामसुंदर जु अनंत रात्रियों से प्रेम में बंधे अनेक अनेक रूपरंगों में सजे यहाँ विहरन करते सखियों के मनों में रीझते रिझाते विराजित हैं।
अहा !!अद्भुत !!कैसे बखानूं या नृत्तन की सोभा सखी या बलि जाऊँ या जुगल जोरि सौं जो रसिकन के हिय की प्यास को और और और रससार करती पिपासा बढ़ाती है।
हाय !!जाने कब मैं युगलसंगिनी इन अनंत सौंदर्य माधुर्य रूपरस की राशि सखियों में से किन्हीं एक की चरणरज पाकर पामर असमर्थ देह से व देह के विकारों से निखरूंगी और जाने कब सौंदर्य माधुर्य के सहज सजीले श्यामा श्यामसुंदर जु के चरणनखों की एक झलक पर अनंत जन्म बलिहारूंगी !
जाने कब.....
जाने कब सखी री....
हा श्यामा अपने करकमल मों निर्बल के मस्तक धरो
हा श्यामसुंदर अति सुकोमल यह चरणकमल हिय धरो !!
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