Skip to main content

भाव राज्य , तृषित

भाव राज्य

भाव राज्य प्रेम राज्य रस राज्य आहा......। सब एक ही ... भाव -प्रेम - रस का अभिन्न जीवन , जीवन भी जीवन का ... मृत्यु का नहीं  ॥ मूल में भाव की ही सत्ता है  सर्वत्र पर भावशून्यता में हम अनुभूत नहीं कर पाते ॥ यह जो हम देखते ... जडता स्थूलता यह सब तो बहुत-बहुत पीछे छूट जाती । ऐसा लोक जहाँ की प्रत्येक जड चेतन दिखती कृति विशुद्ध प्रेम के अनन्तानन्त  भावों  की ही सुंदर झाँकियाँ हैं , वस्तुतः जड़ता-चेतनता है ही नहीँ वहाँ , रस-भाव ही प्रकट है ... । वस्तुएँ पदार्थ होकर भी नहीं हैं , मूल में वह भाव बिन्दु से महाभाव सेवा हेतु महाभाव अवस्थाएं है ... सत्य में यह मात्र भावराज्य है ।  महाभाविनी का प्राण उत्सर्जन है जहाँ , महारागिनी के प्राणों का अनुभव है जहाँ ... । हम देह नामक संज्ञा से अपने समान सिध्द देह को जड देह का ही अनुमान लगाते वहाँ भी , परंतु वहाँ देह हृदय भाव मन प्राण आदि के भेद हैं ही नहीं ... यह भाव देह शब्द जो आप-हम सुनते है यहीं है वहाँ मात्र भावदेह ... भावार्थ देह । यह जो यहाँ आध्यत्मिक कामनाएं होती ना यह भी भाव मे नहीं वहाँ मात्र भावार्थ भाव संयोग से भाव सेवा अवसर है यह ... भाव की सत्ता मात्र ।  वहाँ हृदय , हृदय नहीं हृदय को यहाँ प्राकृत अनुभव किया जाता , श्रीप्रभु का वास स्थल प्रेमासक्त हमारे भीतर उनके स्पर्श द्रवीभूत रस अनुभव को गहराता स्रोत हृदय है ...  ऐसे अप्राकृत हृदय का जीवन है यह भाव राज्य , जिस हृदय की कभी हम सुनते नहीं ... वहीं सामर्थ्य रखता है उन सँग जीवन होने का । हृदय ही नेत्र अधर श्वासें वाणी ... सम्पूर्ण देह , देह ही नहीं , सर्वस्व है वहाँ ।  हृदय भी सत्य में जो हृदय है उसी से प्रकाशित है वहाँ ... कृष्णआह्लादिनी पृथक सत्ता नहीं वहाँ इसकी  । यह शब्द स्पर्श रूप रस और गंध ये पाँचो तन्मात्रायें भाव ही हैं और इंद्रियों के विषय भी वही ... भाव कहने से भी भोग अनुभूत होता तो मानिये निज इंद्रिय अनुभव भी भाव सेवा है जहाँ ... । क्योंकि भोग की ही दिशा में हम जड़ भाग रहें ... भाव भोग्य वस्तु है नहीं , भोग से छुटी स्थिति भाव है । जगत भोग नहीं सकता भाव को सो आकर्षित है भावमयता और भावुक से परन्तु भाव का अणु-अणु भोग शुन्य है क्योंकि भाव अप्राकृत बिंदु है जिसकी सुधानिधि श्रीश्यामा जु और भोग प्राकृत विकार मूल में भोगी मात्र श्यामासुन्दर है ... उनका भोग दृष्टि भोग मात्र है । क्योंकि अप्राकृत भाव बिंदु को स्पर्श करने में वह भी असमर्थ हो जाते है ... सेवा में ही भाव जीवन अनुभव है ... सेवा भाव का बाह्य खेल है , भाव सेवा में मौन-हृदय भी भाव सेवा है , जैसे एक पुष्प मौन हो भृमर सँग ... । भाव के जीवन की ही आशा यहाँ से परमपुरुष तक ... हम अभी अपने भाव को भुलाने में उलझे है , कभी उसे सुलझाएंगे परन्तु जीवन रहते शायद ही श्यामासुन्दर के भाव से अभिन्न भावित हो सकेंगे .... श्यामासुन्दर के भाव से अभिन्नता ही महारास है ।  यहाँ कोई पुष्प लेकर कुछ क्षण अंजुली में भर भाव समन्वित कर अपने इष्ट के श्री चरणों में अर्पित करते हम , हम वहाँ भी अंहकार अर्पण करने में उत्तेजित परन्तु अर्पण तो केवल भाव हो रहा है और स्वीकार भी । प्रथम हमें भाव - पदार्थों का अवलंबन लेना पडता है भावार्पण सीखने के लिये , बाह्य सेवा में भी हम भाव से पृथक कुछ अर्पण नही करते ।  भाव भरी वस्तु ही अर्पण होती परन्तु हम उसे अहंकार से भरी ही देखते है । पर धीरे धीरे ये स्थूलता जडता छूटने लगती है ... केवल भावों को बिना स्थूलता मिश्रित किये सीख लेते हम .... कभी कृपा और लालसा हो भाव-सेवा । यही मानसी-सेवा भाव-सेवा का स्वरूप है , भाव राज्य छूता केवल भाव-अर्चन । यहाँ जगत में स्थूलता प्रकट है और भाव अप्रकट परंतु भाव राज्य में मात्र भाव ही दृश्यमान न केवल दृश्यमान वरन संपूर्ण इंद्रियगोचर भी वही ... महाभाव श्रीप्रिया प्रकट दृश्य वहाँ । यहाँ भाव हमें कल्पना की वस्तु लगता क्योंकि दृश्यमान नहीं । हमारे प्रिया प्रियतम के प्रेम राज्य में इनके अतरिक्त कुछ नहीं , प्रेम भाव की ही वहाँ हमें सेविका होना । प्रियतम नित्य प्यारी जू को श्रृंगार धरावें हैं । प्राण वल्लभ के अनन्त मधुर हृदय भाव ही तो ... प्रेम भाव मनहर के जिन्हें वहीं छूती है ... । ऐसो ही श्री प्रिया जू के प्रेम स्वरूप अद्वितीय भाव श्रृंगार रूप साकार जो वे निज प्रियतम को अर्पित करें हैं ...  समस्त आमोद प्रमोद की सुख सामग्री यही अनन्त भाव ही तो हैं परस्पर सम्पूर्ण श्रंगार-रस लीला भाव मय है ... जो हमारे प्राण-युगल नित्य आरोगते हैं । वहाँ भाव और स्वानुभूति मे पृथकता् का भेद नहीं है । स्व से ही सेवा है , अर्थात प्यारी जु श्यामासुन्दर को मयूर पँख धरावै तो मयूर पँख नहीं श्रीप्रियाजु जु ही मयूर पँख के भाव सुख में वहाँ सेवायत ... । हम यहाँ वस्तुओं पदार्थों से सेवा करते हैं अतः हृदयंगम होना तनिक कठिन सा । यहाँ भेद की सत्ता है वहाँ अभेदता । भाव के आश्रय से ही रस प्रवाहित होता है । बिना भाव बिन्दु रस की अनुभूति नहीं । इसी हेतु वह भाव राज्य रस राज्य है ...  और रसामृत राज्य ही भाव राज्य में डूबा हुआ है । रस वह है जो मन को चखता हो , मन जिसे चखें वह रस नही है ... रस के चखने से मन निर्मलता पाता है , वरन मन रस की रसमयता से सर्वथा पृथक ही धावक है ... मन सब चखने में लगा हुआ और कभी इसे मनहर हर लेते निज अधर-झरित वेणु माधुरी से । ... मन फिर पदार्थ नही छू पाता क्योंकि रस मन को पीने को वहाँ आतुर !!
रसिक शेखर प्रति मन को भाव ही अनुभव करते है ... जबकि मन भाव का विकार स्वरूप है जिसमें जीव का अहम गिरा हुआ । भाव उनका ही हिय स्वरूप मन को वही भाव घोषित करते चख कर । अतः मन की गति के मूल में मनहर ही दृश्य है ... यहाँ भाव यात्रा खिलना चाहती जीवन मे । परन्तु हम भाव को नहीं मन को सत्य मानते है अतः ... तृषित ।।। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।। भाव राज्य ।।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...