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भोरी संगिनी की व्याकुलता

हे पापनाशिनी !!हे विघ्नहरिणी !!हे ठकुरानी !!
हा राधा !!
हरो पंच बिकार स्वामिनी
मोसौं हरै ना जाएँ
लाड़िली करूँ करूण पुकार
मोहै लेयो अब उबार अविकारिणी !!
पतितों की मैं सिरमौर राधिके
घिरी तमस से चहुं ओर
निरखो मो पापिनहुं मुख
करो कृपा की कोर राधिके......

हा राधे !!देखो ना स्वामिनी कैसी पापिन अपराधिन हूँ मैं।
तुम लुटाती रहीं कृपासिन्धु और मैं कर पसारे एक अत्यंत लोभी की तरह अपनी झोली सदा भरती रही।
तुम देतीं रहीं और मैं लेकर ना अघाती।
इतना दिया स्वामिनी कि बाल बाल तक भर गई।
कंठ से हार और नख से शिख तक पूरा श्रृंगार कर लिया मैंने तुम्हारी देन से लाड़ली पर देखो यह कुटिल अभी भी ना तुम्हें रोक रही।
और और और तुम माँग रही सदा।
तुम अति करूणाकारिणी मेरी कामनाओं की पूर्ति हेतु दोनों करों से मोहे दे रही।
प्यारी तब भी यह मन और और और ही चाहता।
लगता दो नहीं चार हाथ हजार हाथ होते देने वाली अकारण करूणावरनालय पर और दो नहीं दस नहीं हजार हाथ होते मुझ लेने वाली के।
लाख लाख झोलियाँ भर स्वामिनी पर मेरा मन लेने से ना ऊबता।
और स्वामिनी दुर्दशा ऐसी कि देने वाली तुम अति करूणामयी और लेने वाली मैं अति कुटिल।
ऐसा तो नहीं कि कभी मेरे हाथ भरे देख किसी ने मुझसे ना माँगा हो स्वामिनी।
तुम्हारे पास बहुत सो तुम से मैंने सदा माँगा तो मेरे हाथ भरे देख मुझसे भी तो कोई आस लगाए रहा होगा ना पर देखो श्यामा मैं इतनी लोभी कि तुमसे पा कर भी करूणावश किसी को कभी कुछ ना दे पाती।
हे लाड़ली तुमसे लेना ही सीखा देना नहीं।
तुम्हारा हृदय अति कोमल और करूणा भरा ...... तुम अनंत गुणा कृपा कर देने वाली और मैं ले लेती हाथ पसार।
कभी करूणावश देना तक ना सीखा राधे.....
हा राधे.....मुझ अति लोभन की तुम क्षण क्षण की हरकतों की साक्षी....सर्वजाननहारी....
मोहे हो सकै तो बख्शाओ प्यारी....
हो सके तो मोहे उबार लो लोभ की दलदल से....
ना हो सके तो यह लेने वाले दो हाथ ही ना रहें...... कुछ ऐसा कर दो कि हाथ पसारना और मुख खोल माँगना छूट जाए प्यारी....
अब तुम कहोगी क्या यह भी मैं ही करूँ तो सुनो ....
मुझमें सामर्थ्य नहीं
ये देह ये प्राण जब तक ना निकलेंगे तब तक हे लाड़िली हिय में कहीं ना कहीं कोई लोभ तो रहेगा ही और गहराता भी रहेगा।
तुम्हारा नाम तक उच्चारसकूँ मुझ घोर पापिन में इसकी भी लयकियत नहीं सो हे स्वामिनी
मुझ अपराधिन के लोभ को हरो....ना हर सको क्यों कि लोभ के अंधकूप में जो हूँ और तुम अति सुकोमल स्वामिनी सो ना हर सको तो और गहरा जाने दो ताकि उसी अंधकूप में गहरी कहीं मेरी दलदल से ना निकल पाने वाली यह देह सड़ जाए और कुछ माँगने के लिए जो तुम्हारा नाम मुख पर आ जाता वो भी ना आ सके इस दुराचारी संगिनी के लबों पर
हर लो लाड़िली !!
हर लो कृपाकारिणी !!

मनमोहिनी !!
जग मोहयौ जग मोहिया ना जाए

हा स्वामिनी !!हे राधे !!
मोह जंजाल में फंसी यह क्षुद्र आत्मा जो तुम से कभी अंशरूप अभिन्न थी पर देखो ....अथाह प्रेम पाकर भी तुमसे एक क्षण भिन्नता को जीने की खुद से लड़ाई में चली आई और भटक गई।
पड़ गई मोह जंजाल में स्वामिनी...
सोचा था एक बार बस एक बार तुमसे भिन्न होकर तुम्हें जी लूं पर देखो स्वामिनी ....ऐसा जीने चली लगा जैसे तुम ही हो गई।
सब अपनी हदें भूल बैठी और फंस गई इस मोह जंजाल में जहाँ सब कोई अपना दिखता नहीं पर मैं उनकी हो गई।तलाशती रही खुद को पर ना ढूँढ पाई ....क्यों ??
क्यों कि मोह में ऐसा फंसी कि अपना अस्तित्व ही भूल बैठी।
भूल बैठी कि जो मैं हूँ वह नहीं बल्कि जो तुम हो वही होना मेरी बहुत बड़ी भूल थी।
पहले तो बंधनों में बंधी और बंधते बंधते ऐसा बंध गई कि मैं तो हूँ पर तुम नहीं स्वामिनी।
यही मूढ़मत्ता कि तुम्हें ना खोज कर खुद को खो बैठी।तुम तो वहीं हो अभी भी अपलक निहार रही मुझे कि अभी नहीं तो कभी किसी पल तो तुम्हें देख एक नजर साँझी करूँ और स्मरण हो आए कि हाँ ......
हाँ  !!यहाँ से खुद को भिन्न कर खो दिया मैंने।
पर देखो ना राधे ....सब जानते बूझते हुए भी तुम्हें अब ना देख पा रही हूँ।
एक गुनहगार की तरह पलकें झुका लेती हूँ और परत जाती हूँ कि यह जो बंधन हैं अब इन्हें निभाए बिन कैसे लौटूं।
जिस देह से कोई संबंध नहीं उसी के सुख कामना और लालसा हेतु तुम्हें बिसरा दिया मैंने और लगी इसका और इससे जुड़ी कुकामनाओं का भरण पोषण करने।
हा स्वामिनी !!तुम तक आने की राहें तो खुद ही बंद कर रही ना मैं।
आह !!सुनो ना
बख्शा लो मुझ दासी को एक अकिंचन सा अपने नख का एक छूटा हुआ रजअणु जान राधे.....
और हाँ  !!हे मोहजंजाल छुड़ानेवाली !अगर ना छुड़ा सको तो झुलसा दो ताकि इन तुच्छ कदमों से कभी युगों तक ना लुट सकूँ और विस्मृति में डूबी हुई मैं सदा सदा के लिए ही अस्तित्वहीना अपनी वाणी से तुम्हारा नाम ना उच्चारण कर सकूँ और ना कभी मेरी यह पलकें खुलें ही तुम अंशधारिता को ......
हा स्वामिनी !!
हा राधे !!

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