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कृष्ण विरहिणी, अमिता बाँवरी दीदी

कृष्ण विरहणी कृष्ण विहरणी

कृष्ण विरहणी राधा। क्या राधा जु को श्यामसुंदर का विरह हो सकता है ? नहीं क्योंकि विरह के लिए दो होना आवश्यक है। दो का संयोग होगा तो वियोग सम्भव। परन्तु राधाकृष्ण युगल तत्व सदा से अभिन्न। शक्तिमान रूपक कृष्ण की ही शक्ति राधा, चन्द्र रूपी कृष्ण की चन्द्रप्रभा ही राधा, जल रूपी कृष्ण की शीतलता ही राधा  , पुष्प रूप कृष्ण की सुगंध राधा ......। हर रूप में युगल ही विद्यमान , तो कृष्ण विरहणी क्यों ? यहां विरह अतृप्ति रूप ही है , क्योंकि प्रेम की तृप्ति कभी होती ही नहीं,नित्य नव नवायमान प्रेम। कृष्ण विरहणी इसलिए क्योंकि प्रेम में सदैव अतृप्ति ही विद्यमान। श्रीराधा रूपी प्रेम सिंधु श्रीरसराज श्यामासुन्दर को प्रेम देकर भी अतृप्त है तथा रसराज रससिन्धु में निमन्जित होते हुए भी तृषित हैं। यह विरह विरह नहीं प्राथकय का नहीं अपितु तृषा का संकेत है। युगल नित्य मिलित नित्य आनन्दित इसलिए कृष्ण विरहणी राधा कृष्ण बिहरणी राधा। परस्पर विहार करते हुए भी विरहित, तृषित । यह दोनों अवस्थायें प्रकट हैं श्रीमहाप्रभु चैतन्य देव में। राधाभाव कांति धार जैसे ही कृष्ण विरहणी है वैसे ही नित्य विहार की स्थिति है श्रीचैतन्य। यह मिलन का उन्माद भी प्रकट उनमे। जहां गम्भीरा लीला में श्रीमहाप्रभु श्रीराधा के विरह रस का आस्वादन करते हैं , वहीं महासंकीर्तन के समय युगल मिलन का उन्माद प्रकट उनमें।

इसलिए
कृष्ण विरहणी राधा
कृष्ण विहरणी राधा

जय जय राधारमण हरिबोल
जय निताई जय गौर

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