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हृदय धन को निरखे हृदय री , मृदुला जु

हृदय धन को निरखे हृदय री

अरी सखि री वो हृदय को परम अमूल्य धन कहा नैनन ते दीखें हैं री । ना री मोरा हिरदे ही तो पीवे वा को रूप रस । हिरदे भरि जावे है री नैनन मांहि । उमग उमग बहवे लागे है री । पिघल पिघल कर बरसे रस होकर । हिरदे कहवे है मोरी वस्तु या तो कैसे या को प्रीत दान करुं री । हिरदे भरि भरि जावे अधरन में री । अधरन ते रस बनि बहन लागे री या हिरदे मोरा । अधरन होई हिरदे रसदान करे है वा को । हिरदे कहवे मोरी वस्तु या प्रेम रतन तो कैसे छूं सकुं याहि ते । तो रोम रोम मांहि भरि जावे है री ॥ रोम रोम होई हिरदे भावों की रसधारा भरि भरि  उडेलने लागे री या निज संपदा में । हिरदे भाव सुगंधि होई भरि भरि जावे है मोरी श्वासन में री । जाने है री जबहिं हिरदे सब कछु होई रहे न तो तो प्यारो हिरदे के रस ते बनों श्यामसुन्दर का रोम रोम खिल उठे है री । ऐसन लागे रस बह चलयो वा के रोम रोम ते । झर रहयो जैसे सुधा को अपार रसधारा ।लागे यहाँ मैं पिघल पिघल बह रही वहाँ वो पिघल पिघल कर बह रहयो । लागे है दोई पिघल बस एक रस हो रहे । खो गये हम दोनों री । अब पतो ही नाय चले री कित मैं हूँ और कित वो । उस क्षण प्रियतम और मैं केवल एक ही होवें हैं री बस एक । हमारी देह भी पिघल कर बस एक रह जावे है री । चिर काल तक डूब बस यूं ही एक हुये बहते रहवें हैं री .......
अरी न री पीवे ना है वरन पहचाने है निज संपदा को । निज संपदा को पहिचान नेह ते निरखे है री कौन ..वही जा की सम्पत्ति है या प्यारो । बतियावे है री नैनन ते अधरन ते मुस्कन ते तिरछी छबीली रसीली चितवन ते कौन ...वही जाकी संपदा या हृदय कोर । पर ना जाने कौन जादू है री निरखन मांहि कि निरख निरख या में मैं दीखन लागूं हूँ री । लागे या के दृगन मांहि भरि भयी हूँ । कबहूं दृगन सो नेह रस बन बह रही । अधरन पे दृष्टि जावे तो वहाँ भी भरो हुओ पाऊँ हूँ री । मुस्कन में भी विलस रही री । या जादूगर के जांहि अंगन पर देखूँ वा में तो मैं ही हूँ री । आभूसन वसन अरी सबहीं कछु में या ने मोहे भरि लीनों है री । या परम सुजान न जाने कौन सी रीत जाने है री जबहिं या ते निरखनो चाहूँ जाने कहाँ कहाँ डुबाने लागे है री मोहे । पृथक तो शेष रहूँ ही ना री । गहराने लागे री अंतर्मन में या मेरो ....। फिर झट ते रूप बदल लेवे है ।लागे मोरा हिरदे ही मोरे सन्मुख प्रकट भयो है । तो लागे याहि तो मेरे समस्त भावों को उद्गम है री । क्या भाव मेरी संपदा हैं ..ना री ये सब याहि को रूप है याहि को स्वत्व हैं । यो मोरा हिरदे हुओ बैठो है भीतर तबहीं ते नित नव भाव नित नव चाव उपजावे है भीतर । या को देख न री या की बडी बडी आँखिन ते कैसे रस उमग रहयो है री । पर ना री जो तनिक निरखन लागी तो पुनः या मोहे पीनो लगेगो । या के रोम रोम में जादू भरो है री जा के समीप होवे वाहि को भरि लेवे है री .....। देखन वारे को संपूर्ण अस्तित्व ही डूबन लागे इसमें । वो बचे ही ना री । रह जावे शेष तो केवल यही केवल एक यही बस यही .......

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