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द्वादश रूपांलकार शोभिता श्यामा श्यामा। संगिनी जु

*द्वादश रूपालंकार शोभिता श्यामा श्यामा*

सुंदरता की राशि श्यामा ! रूप लावन्य द्वादशांलकारी ! सगुणधारी प्रियतम मन सुखकारिणी ! सखिन बलिहारनी ! सुघड़ रसिली गर्बिलि सजीली नवनवेली पियप्यारी मोरी श्यामा... श्यामा ... अतिघनरूपसागरी मोरी श्यामा .... ऐसा सौंदर्य जिसे संवारने या उभारने के लिए नहीं अपितु ... अपितु जिस रूप को  छुपाने के लिए श्रृंगार धराए जाते श्यामा जु को....अहा (सखी चरण रज वांकी रूपनिधि रूपा चरण रज दर्शन मात्र सुं नारायण को ही हिय गति न करें , वांके रूप को प्रकट नहीं कियो जावै , लुखाय सौभाग्य मिले रसिक मदनमोहन को री )!!
कमल की पंखड़ियों की सी सुकोमल पदांगुलियाँ (कमल यों लोक - लोकन ना री , गोलोक प्रकट श्रीनित्यवृन्दावन को ... ) और अल्ता-जावक की महक से भीने चरणकमल श्यामा जु के ... डूबन लागी न , चिंतन ही न कर सके री हम का और .. और निरखे या रूपावली को ... और... और उस पर भी अति मद्स्कित मदनमोहिनी चाल उनकी , जिसकी तुलना मस्त तन्मय मयूर हंसिनी से करना तो कम ही होगा बस यही कि अद्भुत रूपांलकारिका श्यामा जु की चाल पर सात सुर भी थिरक उठें। चाल - ताल पृथक ना यांकी । थिर थिरके कुमुद वृन्दा ते जे मनमोहिनी कमलिनी !  ... एक एक पग धरन पर अनंत कोटि सुमन-दल खिल जाते और हाय री ...  !! प्रियतम श्यामसुंदर तो कर बिछाते जाते जहाँ लाड़िली जु पाइन धरतीं ( ... और प्रेम में तो तू जाने न ... हस्त और नयन एक हूँ होड़ में भागे जहां हस्त ... तहां दृष्टि । और दृष्टि-कर सब प्रियवर लालजु के श्यामा पद तल सुख सेवे । ... हिय से पूछियो कबहुँ सखी मोहन के , श्यामा पद तल पृथक दूजो कोऊ अनुभव जो हिय न जाने वही मदनमोहन प्यारे श्यामसुंदर को हित (हिय) है री । ...)
मदमस्त चाल जैसे कोई नृत्यांगना भावभंगिमाओं में डूबी विचर रही है (... एक हूँ नृत्यांगना साँची जांकि हिय सुर ताल कबहुँ नृत्य को उपविराम करें ही ना री ... कठपुतली ना है ये , साँची पुतली री है मनहर दृगन की ... हम सब काठ की भी न भई न ...) ...और यांकी या चाल पे मटकन डोलन पर बलिहारी जाती यांकी वेणी जो थिरकते कदमन को चूमनो चाह्वे पर छू भी ना पावे... जांकि प्यारी पदथिरकन को... । ...
बाजै हिय री सँग पद पैजनियाँ ... !!
आह !! टहलती विहरती श्यामा जु की लचकन जो करधनी पर सुसज्जित कटिबंध को ताल देती और लचीली ऐसी की मधुकर सखियाँ उनका अवलोकन करतीं ना अघाती... (कहाँ गई री ... , देखत-देखत ही ... धत्त झूठी अँखियाँ जे ... , फिर सँग न कर सकी उस मोहिनी थिरकन का ... कहाँ उड़ भागी री )
मधुस्मित श्यामा जु उरगामिनी गजगामिनी लाल मनहरिणी सखी हिय निवासिनी रसिक जीवन दायिनी....
गोल सुगोल बाजुबंधयुक्त भुजाएँ जो वीणा की तारों को मेहंदी सने महके कर की कोमल नखमणियों से सुसज्जित उंगलियों से छूतीं और गहन राग रागनियाँ स्वतः बज उठती और प्रियतम श्यामसुंदर सदा इन्हीं भुजाओं का आलिंगन पाने हेतु प्रयासरत सेवारत रहते... ( प्रयास तो प्रयास ही होवै न , जे तो प्यारी कृपा ते बरसा दे प्रीत करुणा मनहर पे , सुगन्ध से ही मनहर रह्वे कहाँ मनहर ... ऐसी प्रेमरसीलि गलबइयाँ ...)
श्यामा जु का केशकलाप जिस पर पुष्पों की लड़ीयाँ और वेणीबंधन सदा सुसज्जित रहते और जिन पर मधुकर श्याम भ्रमर निःसंदेह संकोचरहित मंडराते रहते... (जांकि सेवा में उमड़ रहे फूलन भर को जे रसीले प्रीतम छुवै तो धन्य जाने स्वयं को री ... जे वेणी पुष्प श्यामा परस को रसिलो प्रसाद ही तो है री ... जोई अलिन-मनहर रूपी श्रंगार यांको अर्पित भयो अपनो स्वभाव , स्वरूप सबहि श्यामामयी ही होई जाएं , )
सांवर के रंग में रंगी श्यामा जु की ग्रीवा व कंठहार व फूलन की माल से सुसज्जित वक्ष्स्थल की महिमा ऐसी कि कोटि कोटि कामदेव लज्जित हो जाते और उनकी मणिजटित चंद्रिका की अभयकान्ता से भययुक्त हार मान प्रस्थान कर जाते ... (प्रिया हिय ते निकट तो मदनमोहन की गति थिर जावें बलिहारी जे कण्ठहार -फूलन की जो सेवालालसा में दुर्लभतम सेवा पा गए री ... ललचावे ऐसे फूलन होई जावे को मनहर को मन री ... मनहर के मन की पूरी जे श्यामाहिय ही तो बिन कहे करें , वे यां फूल - श्रंगार को लालजु ही पूर्व में ही स्वीकार कर धारण करे है री ... लालसा सुं पूर्व लालसा की धारणा पहने प्यारी जु )  क्रमशः ... भाग 2 में  ... जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।।

*द्वादश रूपालंकार शोभिता श्यामा श्यामा -- 2*

रूप दर्शन चाह्वे न री ... तू नहीं ... तुझमें छिपे मनहर री ... अलि रूप आवै बारम्बार निरखन-सेवन  जे रूप को ... ना देख सकेंगे री तुझमें छिपे रसीले प्रियतम मोरी प्यारी को रूप ...

रूपरंगीली छबीली रसीली लाडिली प्यारी सुकुंवारी लाल मुखजोहनी मोहन मन मोहनी श्यामा जु को मुखकमल....हाय !! (का भयो , कहत ही भागी-छुटि कोटि मदन जे माधुरी सुनत ही ... मोहन मुस्कुरावे तो में पर साहस तो वे भी न कर पावे है री .. निरख ... निरख ... पुनि निरख ... !! )
नवखिलित परागरस की रश्मियाँ जैसे झर रहीं ऐसी रूप आभा इनके मुखकमल की... (झरित पराग न सूर्य देख सकें है री , न चंद ... लुक-छिप जावें जब दोनों ही कुमुदिनी खिले है ... तोरे नयन भीग गए न यांकी रसिली सरसिली परागरसता में ... आह्वान करो मोहन कोटि सूर्य-चन्द्र का और निरखो मोरी प्रियाजु ...) नवखिलित परागरस की रश्मियाँ जैसे झर रहीं ऐसी रूप आभा इनके मुखकमल की... जैसे नव खिलित कपास की नरम कलियाँ छूने भर से मैली हो जातीं और सिकुड़ जातीं (का कहुँ उज्ज्वलता और कोमलता री ... ) और जैसे श्याम घण की अति झीनी झीनी आभा तैर रही जांके मुख पर सदा ... सदा...  सदा [प्यारी आ गए नवघन मनहर ... (गए ही कहाँ-कबहुँ तोसे छूट मनहर सदा बसे जे  नवघन तो में ... ) ] !!
मणिजटित रक्ताभबिन्दु से छुपाया जा रहा है जैसे इनकी चिबुक (कहाँ नहीं छिपे री जे प्यारी में... प्यारे ) और नखबेसर से न्यारी इनकी नासिका...अद्भुत रसीले अधर जैसे गुलाब को गुलाबियत देती यह पंखुड़ियाँ  ...मृगनयनी कटीली भोहें... (प्यारे भी निरखे तो ढुरक जावें , भूली जावे का खेलन हेत आये ... ) कटाक्षिणी की नुकीली भृकुटियाँ (सब साधी सकें जो जे भृकुटि विलास कोऊ समझन हेत हार गए प्रीत में तू ... मैं का गावै यांको जस ... ) और चमकता ललाट...(उज्ज्वल नित्य वधु का नित्य सुहागित ललाट प्रियतम सुख को सुहाग राखै जो ... प्रियतम को ना री ... वांके सुख को सुखी ललाट )  कर्णफूल और कलियों से सुसज्जित कर्ण प्यारी जु के...अति प्रियांग्नि सुंदर से सुंदरतम सुशील सुकुमारी सखियों से भी अतिहि न्यारी श्यामा जु की मुखकांति जिसके एक एक भाव पर प्राण छिड़कते प्राणप्रियतम श्यामसुंदर ....अहा !!श्यामा जु की पलकें उठतीं तो ऊषा लजा जाती और पलकें गिरतीं तो निशा घिर आती...कजरारे काले श्यामरंग में सने नेत्रों की निहारन पर बलिहारी निहारते श्यामसुंदर ...श्वेत अनार के दानों की सी दंतावलि जिसकी मंद हंसन पर ही रागिनी छिड़ जाती....अधरों की मुस्कन पर तो प्राणनाथ सदैव लुटे ही रहते .... और इनकी मधुर बोलन ...हाय !!मौन रह जाते .....
एक एक हाव भाव पर नयन झुका कर श्रीचरणों में लुण्ठित होते प्रियतम के युगल नयन....
जिन स्वामिनी पर सम्पूर्ण सखीवृंद बलिहार जाता उनका श्रृंगार करता उन श्यामा जु की अद्भुत रूपमाधुरी व डोलन चहकन बोलन हंसन पर स्वयं श्यामसुंदर छलकते नयनप्यालों से दरस कर पलकें मूंद कर उनकी अदाओं रसभीनी कलाकलाओं का पान करते मन ही मन मुस्कराते रहते....अद्भुत रूपालंकारिका श्यामा जु विश्वम्बरविमोहिनी....मदनमनमोहिनी....कोटि चंद्रिकाओं और रवियों की आभा को लज्जित करतीं व प्रकृति की नन्ही नन्ही अट्ठकेलियों अंगड़ाईयों में मधुमति रस भरतीं इनकी चारूलता मुखकमल की अद्भुत सुंदर भावभंगिमाएँ... (प्यारी गावे-- रूप-अलंकार मोरे पिय तुम सबहि )। तब (प्यारे कहै मन ही मन-- ... ना प्यारी मैं सब हो सकूँ तेरो श्रृंगार मैं तोरी कृपा ते ही हो पाऊँ , जे मैं जानूँ कि अलिन जाने ... !! तू तो विधि- निषेध - विशेष सब माने ही मोहे । ... बलि-बलि हरिदासी संगिनी अलि रस-रूप श्रंगार कियो ज्यों घनदामिनी एकहूँ कियो ... श्रीहरिदास ।।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।।।

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