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प्रेमाणु , मृदुला जु

प्रेमाणु

प्रेम  वास्तव में स्वयं में ही होता है   । पर तत्व में संभव ही नहीं । पर की प्रतीती भ्रम उपस्थित करती है । हौं भ्रम मान लाख भागने को चाहूँ पर स्व से कैसे भागूँ । कोई जाने या ना जाने कोई समझे चाहें जो भी प्रेम कण जिस भी हृदय में होवे वह परम अभिन्न ही रहेगा नित्य । दो हृदय में एक वस्तु है तो एक ही रहेगी सदा ।जैसे ज्ञान ज्ञान में ही ,बोध बोध में ही रमता है , वैसे ही प्रेम प्रेम में ही रमता है , रहता है। एक तत्व में द्वेत असंभव चाहे करे कोटि उपाय । मुझे नहीं पता कि यहाँ की बात उस वाणी से निसृत हो रही या वहाँ की बात यहाँ प्रकट है । पर केवल वह बात परम सत्य है अखंड सत्य है जिसे दो हृदय अनुभव कर रहे । दो का एक अनुभव ही उन्हें अभिन्न करता है । जिस प्रकार ब्रह्म का ज्ञान जीव हृदय में प्रकट होने पर ब्रह्म से एकत्व करा देता है । प्रेम भी प्रियतम से और जिस हृदय में प्रकट होता अभिन्न करा देता । प्रत्येक तत्व केवल स्वयं में ही प्रतिष्ठित रहता नित्य । प्रेम सदा प्रेम में ही रहता है । संपूर्ण चराचर में जिस हृदय में भी भगवदीय प्रेम अणु प्रकट है वे समस्त हृदय पूर्व में ही परम अभिन्न हैं । किसी एक की बात स्वतः सभी की बात है । सो पर कोई है ही नहीं और यह स्वभाविक और अवश्यंभावी परस्पर आकर्षण लाख चाहने से भी विनष्ट नहीं हो सकता । प्रेम तत्व अकाट्य है अखंड है तो खंड करना संभव ही नहीं । विषय विषयों में ही रमते हैं ज्ञान ज्ञान में और प्रेम प्रेम में ही । प्रेम अप्रेम से कभी एक नहीं हो सकता जैसे ज्ञान अज्ञान से एक नहीं । तो संसारिक दैहिक संबंध होने पर भी प्रेम स्वयं को पहचान स्वयं से एक होता मात्र ।
संसारिक संबंध रक्त संबंध दैहिक संबंध प्रेम से अप्रेम का संबंध है सो अनित्य है और एकत्व असंभव वहाँ परंतु प्रेम से प्रेम का संबंध अभेद है अकाट्य है नित्य है । देह बदल जावें रूप बदल जावें स्थितियाँ बदल जावें काल बदल जावें परंतु नित्य तत्व सदा नित्य है ।
प्रेम के अभिन्नत्व जो नहीं समझते वही श्रीराधामाधव को नहीं समझते । इस धरा को प्रेमोपासना की सर्वाधिक आवश्यकता है अर्थात श्रीप्रियाजु के अनुग्रह की । परन्तु भोग-मायिक जगत श्रीप्रियाजु का दर्शन कर ही नहीँ पाता और सोचता है क्यों पूजा जाता श्याम सँग श्रीराधा को ???
विवाह एक संस्कार है भिन्न चेतनाओं के मिलन का अवसर , चेतना जागृत हो तब ही सौभाग्य से मिलन सम्भव वरन विवाह से आत्मिक मिलन हो नहीं पाता ।  प्रेम एक ही चेतना है ... दो तरह सजता एक जीवन , दो में अभिन्न अथवा बहुतो में एक अभिन्न । प्रियाप्रियतम में दृश्य भर को जो भिन्नता है वह भी मूल में परस्पर प्राणों का प्रेम श्रृंगार है , तनिक भेद नहीं , दोनों हृदय है प्रियतम का हृदय दृश्य है श्रीप्यारी जू दर्शन में , प्यारी जू के हृदय का ही दर्शन है श्रीप्रियतम ...प्रेम ऐसी अद्भुत अभिन्नता है कि ज्ञान आदि भी इतनी गाढ़ गहनता को अनुभव नहीं कर सकते जबकि प्रेम इसी अभिन्नता में सजा हुआ उल्लसित जीवन है । प्रपञ्च तो स्व को ही अनुभव कर लें तो वह सिद्धि कहा जाता है , प्रेम का निर्वाण विचित्र है , वह प्रेमास्पद का श्रंगारित जीवन होकर खिलता जा रहा है , प्रेम प्रेमास्पद सुख होने का अनुभव है , परन्तु जितना घनिभूत उन्मादित यह लोभ भीतर है प्रेमास्पद सुख सजाने का उतनी ही गाढ़ और तृषा (पिपासा) अनुभवित होती है , अतः प्रेम का निर्वाण योगी की तरह चरम को पाकर चरम अनुभव को पीकर यह नहीं कहता , मैं पी चुका हूं । प्रेम तो परम को पूर्ण आस्वादन देकर भी कहता है ...उनकी चरण रेणुका भर को अभी जीवन सुख देना सिद्ध न हुआ , अतः प्रेमाणु का उत्कर्ष प्रपञ्च नहीं अनुभव कर सकता क्योंकि समूचा प्रपञ्च विराम खोज रहा है और प्रेम अविराम सौंदर्य मय जीवन है । तोह कह रहे थे अभिन्नता पर   ...विचार कीजिये श्रीगोविन्द की चेतना बहुत हो तो भी उनकी ही , एक हो तब भी उनकी । अतः प्रीति की रीति रँगीलो ही जाने । शेष तो तत्वतः भृममात्र है । सर्वत्र प्रेम पिपासा में वही ब्रह्मांड और उसी पिपासा में निज कोटि ब्रह्मांडो  के ईश्वरत्व की विस्मृति श्रीकिशोरीजु की पद रज सौरभ से कर सकें वे वही है । हम स्वयं है ही नहीं , हमारे समस्त त्याग - साधना आदि आदि सब मिथ्या है , क्योंकि न हम मूल में है ना हमारी कोई वस्तु ही है । जिसका यह सब सत्य में है वह तो राधिका पायन में बलिहारी है । प्रेमाणु निज वस्तु स्वयं खींचता है । श्रीकृष्ण खींचते है हमारा प्रेम-अनुराग । और उनका प्रेम-अनुराग खींचा जाता निज प्रिया पद मकरन्द सौरभ में ... प्रेम मात्र प्रेम है । आज हम प्रेमशून्य है , भोगमय है और जब तक भोगमय है सूक्ष्म प्रेमाणु का स्पंदन कभी अनुभूत नहीं होगा ... तृषित ।जयजयश्रीश्यामाश्याम जी।

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