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सुष्ठुकान्तास्वरूपिणी प्रिया प्रिया , संगिनी जु

"सुष्ठुकान्तास्वरूपिणी प्रिया प्रिया"

मुदित दृग कदम्ब सटे मनहर वेणु रव पिपासित स्वहृदय कुंज में निहार रहें ... प्रिया जु के अति सुकोमल चंद्रकांति को विनिंदित करते जावकरंजित लालित्यवर्षण करते पदनखप्रभा ... हृदय मधुर प्रकाश में वेणु से बाहर बहने लगा है ...  श्यामसुंदर वेणु बजाते हुए दृगपट खोलते है तब  सम्मुख घनी सरसरी सलिल वल्लरियों में सारी कोकिला की कुँजन से कुँजित कुँज में सन्मुख पारिजात से झूलते कुमुदिनियों और रजनीगन्धा - निशाह्लादित करते बहु फूलन के झूलन पर विराजित प्रियांगनि श्यामा जु की वेणी गूंथ रहे हैं और श्यामा जु वेणु रव से रोम रोम स्पंदित होतीं नीलमणि को निहार रहीं हैं ... हृदय में यहीं रव नित्य ध्वनित । उपासक प्रियतम की मधुर उपासना को जीवन अनुभव करती श्यामा जु और इसी रव माधुरी से सर्वांग में बहता मनहर का निभृत विहार जिसके दो पट उनके निज पलकें ... जो रसझरित हो खुलती है तब विहार ही प्रवाहित हो उमड़ खिल जाता तव नैन सुख श्रीवृन्द रसिली कुँजन झाँकी । निज प्रेम की सजीव झाँकी ...
तत्क्षण भावमग्न वेणी को पुष्पों से सजाते श्यामसुंदर जु के कर से एक पुष्प प्रिया जु के हृदय कमलों को स्पर्श कर उनकी गोद में आ गिरता है और कुँजन चकोर खग रंजन में घुलित वेणु रव के गहन स्पंदन से प्रिया जु लज्जाशील नेत्रों को तनिक ठहरने का व दुर्लभ प्रियमुख दर्शन करने का आग्रह करतीं हैं ... स्व दृगाञ्चलों (पलकों) से
पर पुष्प के स्पर्श से प्रिया जु की पलक तनिक झुकती है और वे प्रिय श्यामसुंदर जु का पीताम्बर जो कि उनके चरणों को स्पर्श करता लहरा रहा है करकमलों से संभालने लगतीं हैं कि श्यामसुंदर जु भवस्माधि से जगते हुए सहसा कह उठते हैं -
अरी ओ हियवासिनी ... रूक रसिली ... मेरा पीताम्बर लिए कहाँ चली री ... रंग निज रँग में ...
यह कहते कहते उनके कर श्यामा जु की नीली चुनरी आ जाती है और प्रिया जु जो सम्मुख विराजमान थीं तनिक उठते हुए घूमकर फिर झूलन की दूसरी ओर से श्यामसुंदर के सम्मुख आ बैठतीं हैं जैसे हँसिनी खेल रही हो किसी मयूर सँग और सरकी चुनरी जो अब मनहर पीताम्बर है ... पीताम्बर मात्र नहीँ मनहर ही है ... पीत वसन रूप पान करते पीताम्बर रूपी मनहर से अपने मुख को ढाँप रही होतीं हैं कि यह सरक कर प्रिया जु के वक्ष् पर आ गिरता है ....
श्यामसुंदर जु प्रिया जु को यूँ ढुरकते पीताम्बर से स्वयं को छुपाते देख उनकी रूप माधुरी का पान अधर बने नयन झरोखों से कर रहे हैं ....जैसे दो चंद्रनयन चकोर चार....
उनकी वेणी झूलन पर से नीचे लटक रही है और अलकें पीताम्बर पर आ गिरी हैं। रसिली प्रीत से भरे नेत्र झुकते हुए हैं सम्पूर्णता की यह मदमयता ही उन्हें नित्य तृषित करती जब नयन कहते और निहारन और हृदय पलकों को कहता आह , बस री तनिक पट लगा देख प्राण उमड़- उमड़ कालिंदी हो गए है री सो झुकते दृगञ्चल और सुंदर मनमोहिनी सुष्ठुकान्तास्वरूपिणी श्यामा जु सहज ही वृन्द वणिताओं के स्पर्श से भुवन त्रिभुवन  समस्त रमणीय माधुर्ययुक्त श्यामसुंदर जु का  अभिमान बनीं उन्हें पराभूत कर रहीं हैं .... अभिमान कैसा मधुर अभिमान । ... मोरी पियारी.. सजिनी .. नितसंगिनी .. प्राणवासिनी ... श्यामा और यही प्राणवासिनी को हिय समेटे निज स्वभाव से झरित वेणु का रव-रव जो होता वृन्द-वृन्द रजातुर ...

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