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श्रीप्रिया हृदय श्रीवृन्दावन , मृदुला जु

श्रीप्रिया हृदय श्रीवृंदावन

श्री वृंदावन श्री वृंदावन श्री वृंदावन आहा........। श्री किशोरी जू को हृदय साकार प्रफुल्लित रससिक्त रसार्णव रससार आह्लाद को महोदधि श्री वृंदावन ......। श्री रसिकों का उद्घोष श्री प्रिया जू को हृदय है श्री वृंदावन । और श्री प्रिया हृदय क्या प्रेम के अनन्त महाभावों का मूल उद्गम । श्री वृंदावन रस मति का नहीं वरन केवल हृदय का विषय है सो मात्र हृदय में ही हृदयंगम होवे । श्री वृंदावन किसी स्थान या भूमि भर का नाम न है यह तो श्री प्रिया के अनन्त प्रेम भावों का प्रकट रसमय दर्शन है । भेद की सत्ता इस मायिक जगत में है । श्री प्रिया जू के दिव्य प्रेम राज्य (जो उन्हीं के हृदय से व्यक्त हुआ है प्रकट हुआ है ) में भेद का कोई अस्तित्व ही नहीं । श्री धाम कहने भर को श्री धाम है अन्यथा वहाँ धाम, धाम वासी, भाव , सेवा , समर्पण , रस , आह्लाद सब परम अभिन्न हैं ॥ क्योंकि श्री प्रियाजू के हृदय का अनन्त विस्तार ही हैं ये सब । क्या केवल श्री वृंदावन की धरा श्री प्यारी जू को हृदय है ....न समस्त चराचर को अणु अणु ही उनका हृदय है । अचर तो वहाँ कछु है ही नहीं , केवल रसात्मकता , लीला रसानन्द हित बाह्य रूप एेसे हैं । श्री प्रिया का हृदय जो महा चैतन्य को चैतन्यता का दान करे है वहाँ से जो कछु व्यक्त होगा वह परम चिन्मय ही होगा । प्रत्येक कण श्री प्रिया के हृदय प्रेम से भावित है । जिस महान सौन्दर्य से श्री वृंदावन जगमगा रहा है वह श्री किशोरी के दिव्यातीत चिन्मय सौंदर्य से ही प्रतिभासित है । जिस महान रस का सीकर पाने को ब्रह्मा शिव उद्धव आदि लालायित हैं वह अद्वितीय रस श्री प्रिया के हृदय का ही परम उज्जवल रस प्रकाश है । अणु अणु बिंदु बिंदु उन्हीं महासिंधु की निज सत्ता है । श्री वृंदावन की रसमयी सुगंधित समीर , प्रकाश सरस शीतल नीर वृक्ष लतायें पुष्प कलिकाएँ कहाँ तक कहा जाये यहाँ तक कि पराग का नन्हा सा कण भी श्री प्यारी जू के हृदय का परम प्रेम भाव ही है । समस्त सखिगण सहचरियाँ किंकरियाँ मंजरियाँ दासियाँ आदि आदि अनन्त रस परिकर स्वयं श्रीवृंदावनेश्वरी के हृदयगत भाव ही तो हैं साकार । आहा!कैसा चिन्मय रस राज्य होगा वह जहाँ अनन्त रस , पुष्पों का रूप लेकर केवल सुगंध नहीं वरन भाव की मधुर सुगंध को नित्य श्री प्रियालाल की सेवा को आतुर होता होगा । और युगल के प्रत्येक मधुर परस्पर दर्शन स्पर्श से इन पुष्पों का रस सौंदर्य सुगंध लावण्य सहस्त्र गुना हो उठता होगा । जहाँ प्रत्येक सखि मंजरी श्री युगल के परस्पर सुख की सेवालालसा वृत्ति की अनन्त सौंदर्यमयी लावण्यमयी प्रतिमा है । युगल की रसमयी सेवा सुख लालसा ही मात्र स्वरूप इनका और श्री युगल के प्रत्येक रसनिमज्जन से शत् सहस्त्र गुणा वर्धित होता इनका सौंदर्य लावण्य । केवल हमारे श्री युगल ही नित्य नवल नित्य किशोर न हैं वरन श्री वृंदावन का कण कण नित्य नवल रसमय नवल सौंदर्य से युक्त है । श्री प्रिया जू का होकर ही श्री वृंदावन का होना संभव है ।

ऐसे श्री वृंदावन के नन्हें से अणु हो जाने की लालसा श्री प्रिया के प्रेम भाव को सेवा लालसा को युगल सुख लालसा को पाने की महा अभिप्सा है । निज के समस्त स्व को खोकर उन्ही महाभाव सिंधु में विलीन होकर उन्ही  दिव्य प्रेमोदधि श्री वृंदावनेश्वरी का निजत्व होकर स्वत्व होकर उन्हीं के सुख सेवा का उपकरण होने की एकमात्र प्राण तृषा है ।

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