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प्रेम स्वामी रामसुखदासजी

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है । उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है‒इसका खयाल नहीं रहता । वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं । (साधक-संजीवनी अध्याय ७ । १८)

प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान्‌ ही हैं‒‘तस्मिंतज्जने भेदाभावात्’ (नारद॰ ४१) । (साधक-संजीवनी ७ ।१८, परिशिष्ट भाव)

उस {महात्मा भक्त} का भगवान्‌के साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाता है, जिससे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति (जागृति) हो जाती है । इस प्रेमकी जागृतिमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्णता है । (साधक-संजीवनी ७ ।३०, अध्यायका सार)

भगवान्‌ ही मेरे हैं ओर मेरे लिये हैं‒इस प्रकार भगवान्‌में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्‌में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य-निरन्तर होता है । (साधक-संजीवनी ८ ।१४ परिशिष्ट भाव)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है ! (साधक-संजीवनी १२ । २ परिशिष्ट)

मुक्त होनेपर संसारकी कामना तो मिट जाती है, पर प्रेमकी भूख नहीं मिटती । (साधक-संजीवनी १५ । ४ परिशिष्ट)

जो मुक्तिमें नहीं अटकता, उसमें सन्तोष नहीं करता, उसको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होती है‒‘मद्‌भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४) (साधक-संजीवनी १५ । ४ परिशिष्ट)

मात्र जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये मात्र जीवोंकी अन्तिम इच्छा प्रेमकी ही है । प्रेमकी इच्छा सार्वभौम इच्छा है । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मनुष्यजन्म पूर्ण हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता । (साधक-संजीवनी १५ । ७ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

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