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सन्त भाव 1

राधे राधे..
"गीताप्रेस गोरखपुर परिवार" के ओर से आज का
सत्संग :
दिनांक : 04-11-2015

🌷🌷   परमात्मा की दया तो समानभाव से सब पर सदा
ही है, परन्तु मनुष्य जब परमात्मा की
शरण हो जाता है तब ईश्वर उस पर विशेष दया करते है । जैसे
सुनार सुवर्ण को आग में तपा कर पवित्र बना लेता है, वैसे
ही परमात्मा अपने भक्त को अनेक प्रकार
की विपतियों के द्वारा तपाकर पवित्र बना लेते है ।
↪ परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी
गोयन्दका सेठजी
🌷🌷   भक्त इसीलिये भगवान् को अधिक प्यारा होता
है की वह अपनी ममता सब जगह से
हटा कर केवल भगवान् में कर लेता है, इसी से उसका
अनन्यानुराग और मुख्यबुद्धि भी भगवान् में
ही हो जाती है । वह भगवान् के लिए सब
कुछ त्याग देता है ।
तुलसीदास जी ने इस सम्बन्ध में भगवान्
श्रीराम के शब्द इस प्रकार गाये है-
जननी जनक बंधू सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद
परिवारा ।।
सब के ममता ताग बटोरी । मम पद मनही
बाँध बरी डोरी ।।
अस सज्जन मम उर बस कैसे । लोभी ह्रदय बसई
धनु जैसे ।।
↪ श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार
भाईजी
🌷🌷  जिस दिन साधक के भीतर यह उत्कट
अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है कि परमात्मा
अभी ही प्राप्त होने चाहिये,
अभी.....अभी.....अभी,
उसी दिन उसे परमात्मप्राप्ति हो सकती
है ! साधक की योग्यता, अभ्यास आदि के बलपर
परमात्मा की प्राप्ति हो जाय‒यह सर्वथा असम्भव है
। परमात्मा की प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषा से
ही हो सकती है । आप सगुण या निर्गुण,
साकार या निराकार, किसी भी तत्त्व को मानते
हों, उसके बिना आपसे रहा नहीं जाय, उसके बिना चैन
न पड़े । भक्तिमती मीराबाई ने कहा
है‒‘हेली म्हास्यूँ हरि बिनु रह्यो न जाय’ ‘हे
सखी, मुझसे हरि के बिना रहा नहीं जाता ।’
निर्गुण उपासकों ने भी यही कहा है‒
चितवन मोरी तुमसे लागी पिया ।
दिन नहि भूख रैन नहि निद्रा, छिन छिन व्याकुल होत हिया ॥
तत्त्व की प्राप्ति के बिना दिन में भूख
नहीं लगती और रात में नींद
नहीं आती ! आप कैसे मिलें ! क्या करूँ !
हृदय में क्षण-क्षण व्याकुलता बढ़ रही है । उसे
छोड़कर और कुछ सुहाता नहीं । सन्तों ने
भी कहा है‒
नारायन हरि लगन में, ये पाँचों न सुहात ।
विषयभोग, निद्रा, हँसी, जगत प्रीत, बहु
बात ॥
ये विषयभोगादि पाँचों चीजें जिस दिन सुहायेंगी
नहीं, अपितु कड़वी अर्थात्
बुरी लगेंगी, भगवान् का वियोग सहा
नहीं जायगा, उसी दिन प्रभु मिल जायँगे !
↪ स्वामीजी श्री रामसुखदास
जी महाराज
🌷🌷   समस्त साधन विश्राम, स्वाधीनता और प्रेम में
ही विलीन होते हैं । अत: इन
तीनों का सम्पादन सभी साधकों के लिए
अनिवार्य है । आंशिक साधन से किसी भी
साधक को सन्तुष्टि नहीं होती, किन्तु
आंशिक असाधन प्रत्येक साधक को क्षुब्ध रखता है । इससे यह
निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि साधक की माँग सर्वांश में
असाधन के नाश की है । सर्वांश में असाधन का नाश
होते ही सर्वांश में साधन की अभिव्यक्ति
स्वतः होती है । सर्वांश में असाधन का नाश
तभी सम्भव होगा जब साधक अपने जाने हुए असत्
का सर्वांश में त्याग करे । अपने जाने हुए असत् के त्याग में
पराधीनता तथा असमर्थता नहीं है ।
असाधन-जनित सुख-लोलुपता और आंशिक साधन का अभिमान असत्
के संग को पोषित करते हैं । आंशिक साधन का अभिमान गल जाने पर
असाधन-जनित सुखलोलुपता अपने-आप मिट जाती है ।
↪ स्वामी श्री शरणानन्द जी
महाराज
जय श्री कृष्ण
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