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श्री विग्रह साक्षात्

शरणानन्द जी से जब कोई पूछता की आपको दर्शन हो नही पाते तो क्यों बिहारी जी के नित्य आते है ?
तब वें कहते कि अरे मुझे नही दिखता पर इन्हें तो दिखता है न । यें मुझे देखते है सो आता हूँ ।
श्रद्धा असीम हो  । प्रश्न वत् नहीँ । हम भी दर्शन करते है । पर देख कर भी किंचित् सन्देह का गुबार भीतर बन जाता है । वस्तुतः अधिकतर हम दर्शन या मिलन नहीँ कर परीक्षण करते है । अगर किसी को साक्षात् अनुभूत् हो । कोई बात ही कर रहा हो तो लगता है कि ओवर एक्टिंग है क्योंकि हमे नहीँ हुआ ऐसा । यानि हम परीक्षा लेने गए कि क्या सच में ईश्वर विग्रह भाव से है ?
सभी दिव्य श्री विग्रह साक्षात् ही है । परन्तु हम मानेंगे नहीँ कारण इतनी सहजता से हमें ईश्वर को पाना ही नहीँ है । श्रम करना है ।
विस्तृत दृष्टि से देखे तो सारा श्रम उस असीम सत्ता का ही है । राधारमण सामने हो और कहा जाये कब मिलोगे यें दुर्भाग्य है हमारा । पूर्व में सभी श्री विग्रह सेवक से बातें करते थे । आज भी करना चाहते है ।परन्तु हमारी पूर्व निर्धारण नीती बीच में है । हम एक झलक निहार आगे चल देते है । वो देखे धीरे धीरे नित्य देखे उन्हें लगे कि हाँ मेरा है । उतना सब्र नहीँ । अतः अध्यात्म और प्रेम संकल्प विचार हीनता चाहता है । जब तक विचारों का गुच्छा भीतर है । चेतन मुर्त और मुर्त चेतन प्रतीत होगा और यें ही अविद्या है या कहो कि माया ही है ।
कोई कहे कि केवल विग्रह में क्यों वे सर्वत्र ही तो है । जी हाँ सर्वत्र है ; परन्तु अनुभूत् की पूर्णता कहाँ ? रस पूर्ण वृक्ष में है फिर फल ही क्यों ?और फल से भी केवल रस ही क्यों ?
ऐसे रसिक भी हुए है जिन्होंने केवल फल न खा कर डालियाँ ही चूस कर जीवन जिया ; उनके लिए सर्वत्र ही है पूरा वृक्ष ईश्वर हो गया । जब तक हम फल ही खाना चाहे कितने ही निर्गुणता के नारे हो सगुण को केवल सीधा रस का लालच भीतर है ।
श्री विग्रह ; साक्षात् है ; केवल दृष्टि दोष है । हमारी बीमारी है । एक बार श्री विग्रह के सन्मुख उन्हें साक्षात् पाना चाहे । किंचित् क्षण संसार चला जायेगा  और  शरीर पूर्ण रस में नहा उठेगा । परम् रसिक सन्त और श्री विग्रह दर्शन के नियम वस्तुतः इसी भाव से है कि वे यहीँ है सो मौन रहे । धीरे बोले । अग़र हम ने साक्षात् मान ही लिया और कृपासागर ने साक्षात् मिलन कर ही लिया तो स्वतः सभी नियम हो जाएंगे । न हम उनके सन्मुख किसी से बात करेगें न जोर से बोलेगे । न किंचित् भीतरी उठापटक ही होगी ।
बहुत से लोग आस्तिकता के चोंगे में केवल जिज्ञासु रह जाते है । जीवन भर यहीँ प्रश्न यहाँ वहाँ कहते है कि ईश्वर कहाँ है ? कैसे मिलेंगे ?
आप कितने ही बड़े खोजी हो जाये परन्तु यहाँ चोर भी बहुत सरल होकर भी परम् ही है । सन्मुख होंगे ! भीतर के घर में होंगे पर मौन होंगे !
कभी कभी स्वयं आपके संग ईश्वर खोज रहे होंगे ! परन्तु स्वीकार्य न होंगे । और इस लुका छिपी का सारा खेल जब ही पूरा होगा जब हम कह दे कि मैंने आपको देख लिया अब न छिपो । बल्कि अब सब छिप गया आप ही हो । तब तक खेल है बस । प्रथम घोषणा हमारी हो कि मान लिया आप हो । यहीँ हो । अभी हो । सदा हो । सर्वत्र हो । तब ईश्वर जो किसी के लिए सदा अदृश्य है हमारे हेतु सदा प्रगट होंगे । श्यामाश्याम सत्यजीत तृषित ।

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