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कहो कौन मुँह लाइ कै रघुबीर गोंसाई

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पाती प्रभु के नाम

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हे रघुवीर ! हे स्वामी ! कौन - सा मुहँ लेकर आपसे कुछ कहूँ ? स्वामीकी दुहाई है, जब मैं अपनी करनीपर विचार करता हूँ, तब संकोचके मारे चुप हो रहता हूँ ॥१॥

सेवा करनेसे वशमें हो जाते हैं, स्मरण करनेसे मित्र बन जाते हैं और शरणमें आनेसे सामने प्रकट हो जाते हैं । ऐसे आप श्रीसीतानाथजीके गुण - समूहपर भी मैं ध्यान नहीं देता ॥२॥

आप कृपाके समुद्र हैं, दीनोंके बन्धु हैं, दुःखियोंके हितू है और शरणागतोंके पालनेवाले हैं, आपकी ऐसी विरदावली सुनकर और जानकर भी मैं भूल गया हूँ ॥३॥

मैंने न तो सेवा ही की और न ध्यान ही किया । स्मरण करके आपके चरणोंमें सच्चा प्रेम भी नहीं किया । आप - सरीखे श्रेष्ठ स्वामीको पाकर भी मैंने आपके साथ भर पेट बिगाड़ ही किया ॥४॥

आप गरीबोंपर कृपा करनेवाले हैं; पर मैंने गरीबी धारण नहीं की । ( अतएव मेरी ओर देखनेसे तो कुछ भी नहीं होगा ? अब हे नाथ ! अपनी ओर देखकर ही जो आपसे बन पड़े सो कीजिये ॥५॥

कहौं कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाईं ।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥१॥
सेवत बस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं ।
गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं ॥२॥
कृपासिंधु बंधु दीनके आरत - हितकारी ।
प्रनत - पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥३॥
सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद - प्रीति सुधारी ।
पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी ॥४॥
नाथ गरीबनिवाज हैं, मैं गही न गरीबी ।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ॥५॥
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