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रसिकों की कृपा

रसिक रँगे जे युगल रंग,तिनकी जूठन खाइ।
जहाँ तहाँ के पावने,भजन तेज घटि जाइ।।

इष्ट मिलै अरु मन मिलै,मिलै भजन रस रीति।
मिलिये तहाँ निशंक ह्वै,कीजै तिनसों प्रीति।।

जिनके देखे पुलक तन,रोमांचित ह्वै जाहि।
सुनत मधुर तिनके वचन,नैन भरैं जल आहि।।

खान पान तौ कीजिये,रसिक मंडली माहिं।
जिनके और उपासना,तहाँ उचित ध्रुव नाहिं।।

संग सोई जाके मिले,भूलै ग्रह व्यौहार।
तिहि छिन आवै हिये में,अद्भुत युगल विहार।।

यह रस परस्यौ नाहिं जिन,तू जिनि परसै ताहि।
तासौं नातौ नाहिं कछु, यह रस रुचै न जाहि।।

युगल प्रेम रस मगन जे,तेई अपने जानि।
सब विधि अंतर खोलि कै,तिनही सों रूचि मानि।।
[

जिनकौ सहज सुभाव परयौ,युगल रंग की बात।
निशि दिन बीतै भजन में,और न कछु सुहात।।

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