श्याम तोरी, मुरली ने जुलुम करी |
धुनि सोँ नर, किन्नर, सुर मोहे, शिव समाधि बिसरी |
तुम जो रची वेद – मरजादा, सो सब खोय धरी |
वंस – वंस वनवास, आठ – मुख, अंतर पोल परी |
इतनेहुँ पै इतराति, निलज अति, नगन देह सिगरी |
नहिं ‘कृपालु’ कछु दोष बंसरी, मुँह लग कीन हरी ||
भावार्थ – एक गोपी कहती है कि हे श्यामसुन्दर ! तुम्हारी मुरली ने तो बहुत ही ऊधम कर डाला है | इस मुरली की तान से नर, किन्नर, देवता आदि सभी अपने आप को भूल गये, यहाँ तक कि शंकरजी की निर्विकल्प समाधि भी भंग हो गयी | हे श्यामसुन्दर ! तुमने जो वेदों में मनुष्यों के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था की मर्यादा बनाई थी, इस मुरली ने उसे बिल्कुल नष्ट कर दिया | यद्यपि इस मुरली का कुल बाँस का है एवं निवास जंगल का है, आठ छेद हैं, अन्त:करण छूछा ( पोला ) है, स्वयं नंगी है फिर भी यह निर्लज्ज हम सबको देखकर अत्यन्त ही इतराती है | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि इसमें वंशी का कोई दोष नहीं, दोष तो श्यामसुन्दर का है जिन्होंने इसको मुँह लगी करके ढीठ बना दिया है|
( प्रेम रस मदिरा मुरली – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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