सत् - चित् - आनन्द !
कई रसिक समाज के मन्दिरों में वर्ष के 365 दिन में 370 से करीब 400 उत्सव तक मनाये जाते है !
व्यापक ईश्वर ही रूप-पररूप-विभिन्न रूप में सर्वत्र है ! सत्य ही ईश्वर और ईश्वर ही सत्य है | किसी भी दृश्य-अदृश्य तत्व के सत्य स्वरूप ( नित्य चेतन - सनातन - अविनाशी आदि ) को मान और जान लिया जावें तो वहीं वहाँ अप्रगट ईश्वर रूप है | जैसे जीव में - आत्मा !
अविद्या (माया) को सरलीकरण कहना इतना है कि द्वेत अविद्या है | व्यापक ईश्वर के अतिरिक्त अन्य तत्व को देखना मानना अविद्या है | आत्म प्रज्ञा चक्षु से केवल ईश्वर ही नाना रूप आदि में निहित होते दिख सकते है | प्रज्ञा चक्षु के खुलने की अपील में किये साधन को मानना या न मानना, ईश्वरिय ईच्छा है | चुंकि जीव ईश्वरिय रूप-अंश है अत: साधन आत्मिय तत्व से प्रगट और जुडा है तो निश्चित् दिव्य चक्षु खुलने ही है | अधिकत्तर साधन से प्राप्त दृष्टि से भी अद्वेत नहीं हटता अपितु गहरा जाता है | यहाँ साधन अपूर्ण स्थिति में है , और उसे पूर्ण समझ लिया गया है |
एक ही तत्व व्यापक और नित्य है ... सच्चिदानन्द !
ईश्वर का सत् रूप का ही अर्थ व्यापक-नित्य-सर्वत्र | ईश्वर को ज्ञानमय और ज्ञानरूप संधिनी शक्ति बनाती है जो सत् रूप की शक्ति है | अर्थात् संधिनी के द्वारा ही ईश्वर बोध और प्रकाश में आते है ... सर्व प्रकारेण ज्ञान संधिनी से ही रक्षित और पोषित है | ईश्वर के नित्य-व्यापक- सत्य रूप को जानना , दर्शन करना ही पूर्णज्ञान है |
चित् या स्वरूप शक्ति से आत्मा और माया प्रगट है | चित् अर्थात् चेतना ... आत्मा नित्य-चेतन है |
आह्लादिनी शक्ति से आनन्द रूप निहित है | आह्लाद से ही आनन्द रूपी अनुभुतियाँ और आनन्द रूप ईश्वर से मिलन होता है |
जीव नित्य आनन्द से अविद्या अर्थात् माया के प्रभाव से भटक गया है | जीव के सम्पुर्ण प्रयास आनन्द की ओर है क्यों ?
सत्-चित् की और क्यों नहीं ?
रसिक आचार्य कहते है जीव में सत् और चित् दोनों है ... आनन्द से वंचित है , अत: आत्मा अपनी पूर्णता को पाने के लिये ही आनन्द ते लिये प्रयास करती है , उत्सर्जन करती है |
वस्तुत: जीव जब तक माया के प्रभाव में है अथवा अविद्या से सत् और चित् से दूर है ... जब तक यें ना माने कि ईश्वर सर्वत्र समान रूप से व्यापत है ! चेतन रूप का दर्शन ना करें , नाशवान् -क्षणभंगुर वस्तुओं की जडता से अपरिचित हो उनमें ही आनन्द तलाशे तब तक आनन्द नित्य न होगा |
अर्थात् स्व का बोध फिर परम् सत्ता का बोध तब नित्य आनन्द रस !
पूर्ण अद्वेत - पूर्ण ज्ञान - पूर्ण प्रेम एक ही अवस्था है |
परन्तु आनन्द , अह्लादिनी शक्ति से प्रगट होना कहा गया है | रसिक आचार्य कहे है कि ईश्वर ही अपनी अह्लादिनी शक्ति हृदय में निक्षिप्त (छोडते) है | ... ... .... यहीं चर्चा करने का भाव है …………
आह्लादिनी शक्ति ही राधा है | यहीं ईश्वर का मूल रस , आनन्द की नित्यता के लिये नित्य आह्लाद वर्धन चाहिये …… ईश्वर स्वयं आनन्द है परन्तु आनन्दित होने का कारण आह्लादिनी में है .... हमारे जैजै नित्य आनन्दित है ! परन्तु क्यों और कैसे ? उत्तर ....राधा ! राधा ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आह्लाद उत्पन्न कर जैजै को नित्य आनन्दित करती है | ईश्वर सर्वत्र है .... और व्यापक ईश्वर का आनन्द छिपा है .... आह्लादिनी शक्ति में | जैसे माखन के लिये बिलौनी चाहिये वैसे ही आनन्द के लिये अह्लादिनी | संधिनी शक्ति -स्वरूप शक्ति और अह्लादिनी में अह्लादिनी का कार्य कठिन है ....... ईश्वर के आनन्द की नित्यता और वर्धन करना | जीव स्वयं सोचे आनन्द को नित्य धारण करना कितना आसान और कितना दुरह है | यहाँ लगता है कि जीव नाना प्रकार से आनन्द तो प्राप्त कर ही लेता है | किसी भी एंटरटेनमेंट से ... परन्तु वस्तु जड से प्राप्त रस में भी ईश्वरिय अनुभुती तो है पर नित्य नहीं ! जैसे सारा दिन की भुख के बाद मिला भोजन करते समय आनन्द अनुभुत् होता है | कारण चित् का ठहरना .... मन का व्याकुल होने से मन एकाग्र होता है जिससे ईश्वरिय रस प्रगट होता है ... और लगता है भोजन से सुख मिला | जबकि सुख तो मिला मन की एकाग्रता से ... वस्तु का सुख नित्य नहीं ! सदा रहने वाला नहीं ! कभी सुख देने वाली वस्तु भी परिस्थिति अनुरूप दुख का कारण होती है .... जैसे दिसम्बर जनवरी में कोई कुलर चला दें तो कष्ट होगा और मई-जुन में कोई बन्द कर दें तो कष्ट होगा | संतों ने बार-बार कहा .... सुखी राम का दास ! क्योंकि ईश्वर का रस नित्य है , सनातन है , यहाँ पूर्णविराम नहीं | परन्तु जीव की प्रबल ईच्छा से ही अह्लाद उत्पन्न होता है | जितना अह्लाद उतना आनन्द !
पूर्ण अह्लाद अर्थात् पूर्ण राधाभाव तब पूर्ण आनन्द अर्थात् पूर्ण माधुर्य कृष्ण मिलन !
भक्ति ही आह्लाद है ... भक्त होना प्राप्ति नहीं ! पूर्णभाव कृपा प्रसाद है ! भक्ति के या प्रीति के प्रयासों को भक्ति नहीं कहते .... प्रयास पूर्ण निष्काम भाव से आत्मा की गहराई से हो तब ही हरि कृपा अनुभुत् होती है | कोई भक्त हो और कहे मैं राधा अनुगामी नहीँ , अगर भक्ति है तो वहीँ स्वयं राधा है , भले स्वीकार्य न हो । राधा में रा राम का बोधक कराता है , अग्नि का बीज मन्त्र र है । अग्नि ही पदार्थो में नित्य है । रा का अर्थ सर्वत्र रमा हुआ परब्रह्म । धा का अर्थ धारणा , धर्म । व्यापक सर्वत्र रमण आनन्दमय लीलामय परब्रह्म कृष्ण की धारणा जिस शक्ति से हो वही "राधा" है । राधा नेत्र है आनन्द रूपी कृष्ण के दर्शन के लिए । निष्काम प्रीति से ईश्वर दर्शन देते है । कामना ईश्वर की जीव से मुक्ति है । निष्काम प्रीति से सत चित् को आह्लाद मिलता है और आनन्द नित्य हो उठता है । आनन्द को मैं सम्पुटित मानता हूँ अर्थात् दोनों और से ढका हुआ करुणा से ।।। आनन्द के प्रारम्भ और पूर्णता में करुणा निहित है । प्रेम जब नदी बन जाये तो करुणा प्रगट होती है अर्थात् भावों की वह स्थिति जहाँ कृष्ण के होने न होने पर भी कृष्ण का ही होना हो और ऐसे भावावेश में रस को न सम्भाल पाने पर करुणा खिलने लगती है ।।। जित देखु तित लाल की स्थिति करुणा है । बाह्य जगत को रस और करुणा प्रेम आनन्द एक पागलपन ही प्रतीत होता है ।
कृष्ण जन्म पूर्व से उत्सव बार बार जीव में ईश्वर को सुख देने का सहज कारण बनते है । प्रतीति तो होती है आनन्द दिया जा रहा है वस्तुतः आनन्द मिल रहा है । कृष्ण नित्य आनन्दित है जीवन के किसी भी समय उन्हें संग ले नाच लो , खेल लो , झूम लो । जीव निष्काम प्रीति से जड़ सुख से सदा के सुख की ओर बढ़ता है । कृष्ण नित्य आनन्दित है परन्तु जीव नित्य रसमय रहे अतः अवतरण काल में व्यवहारिकी लीलायें की गई । और नित्य लीला ईश्वर के नित्य उत्कर्ष (आनन्द) के वर्धन के लिए ही है जहाँ नायक नहीं नायिका प्रधान है वहीँ आह्लादिनी शक्ति श्री राधा जो कृष्ण के भीतरी कृष्णत्व की कारिणी है । अविद्या में दो (द्वेत) होना ही अविद्या है । परन्तु लीला में रस वर्धन आनन्दघन के आनन्द वर्धन हेतु दो हुआ जाता है । अर्थात् जीव की उत्पति भगवान का रस वर्धन हेतु ही है | जीव की भगवत् प्राप्ति में भगवदियानन्द की भी वृद्धि निहित है । परन्तु जीव भगवत् आनन्द रस को जब ही बढ़ा सकता है जब पूर्ण निष्काम भाव से सेवा , लीला , भजन में लगा रहे | अगर ईश्वरीय निक्षिप्त शक्ति प्राप्त साधक है तो सहज निष्काम होगा क्योंकी वहाँ आह्लादिनी शक्ति निहित है जो रस देने हेतु ही है । वहाँ भोक्ता केवल श्री कृष्ण (भगवान) और शेष सब उन्ही की शक्ति से लीला रस में उन्ही के रूप-अंश में भोग्य है । अर्थात् पात्र उनका व्यंजन उनका पकाया उन्होंने भोजन भी वहीँ ही करें । एक रूपी ईश्वर ही कृष्ण , राधा , गोपी और वृन्दावन रूप में प्रगट होते है । कारण विभिन्न उपादानों से रस वर्धन । आनन्दवर्धन । "सत्यजीत तृषित" ।। क्रमशः ........ ।।। जिज्ञासा आदि के लिए 8955878930 what's app number ।
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