सबकुछ कहा जा सकेगा
पर कीमती वो वेदना है
जो आपकी यादों की कश्ती
से जब जब उतरती है
तब जो पीर उठती है
लगता है जैसे धरोहर हो
छिपा लूँ ; दबा लूँ !!
कभी कभी दिल कहता है
जी ले इस दर्द को
यें ख़ास करता है तुझे
पर न । बस छू कर भीतर
गहरे में बन्द करना होता है
सदियों से तलाशा मेरा क्या है ?
अब मिला ।
क्या उठती पीर में गहराई में दबा
वो सुकूँ ... झील से झरता मधुर नहीँ ।
नहीँ कह सकती तुम मेरे हो
हाँ पर यें प्रीत की रीत का अनहद मेरा है ।
कभी तुम कश्ती लें कर आ भी गये
यें प्यासी उस और न जायेगी।
बैठुगी उस कश्ती में
देखूँगी होंठो में अंगुली दबा तुम्हें
जब तुम बातें करोगों सबसे
तो अधर से निकलते हर अमृत को
बिन सुने हिवडे से छिपा लूँगी ...
पर
सब को उस और उतार
मुझे इस और छोड़ देना ।
इतनी वेदना दे जाना कि जी न सकूँ
और इतना प्रेम जगा जाना कि मर न सकूँ
मरती तो मैं जब हूँ
जब इन लम्हों को ख़ुद जीने लगती हूँ
तुम में घुल कर जब हटती हूँ
तब मरती हूँ
तुम्हें जीना ही अब जीवन
और ख़ुद को जीना ही मरण है मेरा
और इतफ़ाक से मरती ज्यादा
जीती कम हूँ
तुम बस ये बता दो और कितना मरना है
जब तुम हो तो मैं क्यूँ हूँ पिया !!!
क्या तुम कह पाओगे सबसे
कौन हूँ मैं ?
यहाँ की अब रही नहीँ
वहां की हो जाऊँ ऐसा अलाप नहीँ
कहो अब सब से कौन हूँ मैं
जीवित-मृत , नर-नार ,
कुछ तो घोषणा करों ।
कानों में दर्द उठता है
जब कोई पूछता है
आप कौन ?
क्या कहू ...
बता भी देते ...
कौन हूँ अब !!
अब वो तो नही जो थी
और जो है वो मैं नहीँ
आपका नाम ले नहीँ सकती
ऐसी बंजारन के ब्याता न बनो
ख़ुद को कहने का जोर नही ।
भीतर एक संगम है
हर्ष करुणा और विरह का
मैं तुम्हारी हूँ
और यहाँ फिर भी हूँ
क्या इससे गहरा भी दर्द होता होगा
ख़ैर ! फिर भी कहूँगी
जब तक हूँ ...
आप से और सबसे
एक बार इनके हो जाओ
एक बार सबको महका दो
हाँ ! दर्द मिलता है
पर बहुत बेशकीमती है यें दरिया
गुल ही नहीँ
हर कूचा-कूचा , पता-पता महकें
और महकता भी है
कितना अजीब है
तुम यही हो
मुझमेँ हो ... सबमे हो
सब कुछ तुम्हारा है
तुम सबके हो
फ़िर भी ख़्वाब लगते हो
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