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श्री मनोहरदासजी बाबाजी

सोते बहुत कम , बिछौना भी नहीं के बराबर रखते ! आहार में होती मधुकरी ( बृजवासियों से संयमित क्रम से न्युनतम् प्राप्त भगवत् प्रसाद रूप भिक्षा ) के आटे की रोटी और नीम के पत्तों का रस ! जी नीम के पत्ते ! अन्त के कुछ दिन केवल अल्प मात्रा में दूध ! बाहर का कोई सम्बन्ध नहीं ! मन्दिर निर्माणकर मदनमोहन की सेवा चलायी , पर मन्दिर की सेवा-परिचालन के प्रति उदासीन ! एकाकी समय व्यतीत करना ! लोकसंग नहीं ! कम बोलना ! शिष्यादि करने की बात पर अस्थिर हो जाना ! जो दिख जाये उसे ही दण्डवत् ! और सदा आत्मनिन्दा ! अपनी निन्दा ... ! चरण स्पर्श न कराना और चरण धोते समय चरणों का जल घिसकर रज में मिला देना ताकि कोई चरणजल न ग्रहण कर लें ! .... यें है परम् रसमय संत ! .... श्री मनोहरदास बाबाजी .. जय जय भगवन् !
सन् १८४७ की कार्तिक शुक्ल पंचमी को नदिया जिला , माधवपुर में जन्म !
छ: वर्ष की अवस्था में विरक्ति ! १३ वर्ष में दीक्षा ! फिर वेशग्रहण ! नवद्वीप में सिद्ध संत श्री चैतन्यदास बाबा और बडे अखाडे वाले पं. नरोत्तमदास बाबाजी का संग ! कालना के सिद्ध श्री भगवानदास बाबा के दर्शन संग की कृपा ! फिर वृन्दावन यात्रा ! पाँच वर्ष श्री राधारमण के सेवाइयत श्रीपाद गोपीलाल गोस्वामी प्रभु से भक्ति शास्त्र का अध्ययन ! और भी परम् दिव्य संतों के संग ! ऐसे संत जो निश्चित् ही पारसमणी है ! कुसुमसरोवर , काम्यवन , नन्दग्राम में रहकर भजन ! १८८३ के लगभग स्वप्नादेश से गिरिराज तटवर्ती गोविन्द कुण्ड में जाकर भजन ! फिर गुफा बनाकर उसमें वास !

भजनावेश (लीलासाक्षात्) के कारण बाबा शरीर की तरफ ध्यान ना देते ! मच्छरों की अधिकता पर भी अन्य संगियों की तरह मच्छरदानी न लगाकर कहते -- " क्यों भई ! मच्छर हमारा क्या बिगाडता है ? वह तो अधिक निद्रा में बाधा डालकर भजन कराने में हमारा सहायक है ! "
एक बार दारुण शीत पडी ! ललिताकुण्ड में बर्फ तैरने लगी ! बाबा के पास ओढने को तब भी फटी पिछौरी ! रात्रि में भजन करते समय शरीर काँपने लगा तो वें शरीर पर क्रोधित हो गये ! उसी समय अर्धरात्रि में कुण्ड के बर्फीले पानी में खूब स्नान किये ! निकट ही नवद्वीपदास बाबा रहते थे उन्होंने शीत रात्री में स्नान का कारण पूछा तो बोले ... देह बडा पौषाकी हो गया है ; अर्थात् लिहाफ और रजाई मांगने लग गया है ! इसे कहते है वैराग्य , और निवृति न हो और भगवत् पूर्ण अनुराग हो जायें बहुत कठिन है ! ... कृपा जगदीश की !
किसी वैष्णव ने उनसे पूछा - भजन में जो विघ्न आते हैं , उन पर कैसे काबू पाया जा सकता है ?
इसी प्रश्न के उत्तर के लिये पोस्ट लिखा ! यें सभी साधकों का ही प्रश्न है ! परन्तु बिना कुछ चरित के उत्तर से हम जुड न पाते !

तो उन्होंने उत्तर में कहा -- " प्राणों की बाजी लगाकर भजन के लिये चेष्टा करने से भजन में आये सभी विघ्न दूर हो जाते है ! " साधक की सरल एकान्तिक चेष्टा देखकर परमात्मा प्रसन्न होते है और भजन का दरवाजा खोल देते हैं ! यह सब एक दिन में नहीं होता ! विघ्न भजन करते-करते क्रमश: अन्तर्धान होते हैं भजन में जैसी दृढता और एकान्तिकता की आवश्यकता है , वैसी ही धैर्य और सहिष्णुता की ! भजन के लिये उपयुक्त स्थान में चित्त को रखना बडा कठिन है ! जड वस्तु से आसक्ति जाये बिना चित्त शुद्ध नहीं होता ! भक्ति नहीं होती ! ( संसार और देह आदि सभी भूत जड है ) भक्ति हुये बिना चिद्वस्तु (अन्त:-चेतना) के स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती ! भजन के प्रभाव से जैसे जैसे जडीय - संस्कार क्षय होते है ... वैसे-वैस चित्त निर्मल होता है और विघ्न दूर होते हैं ! "
सन् १९८७ की श्रावणी शुक्ल त्रयोदशी को बाबा ने अप्रकटलीला में प्रवेश किया ! भक्तों के कण्ठहार स्वरूप दो ग्रन्थों की रचना की -- "वैदग्धिविलास" , "नामरत्नमाला" ...श्यामाश्याम !! सत्यजीत "तृषित" ! बहुत पुरानी बातें नहीं , पर यें भजन की पद्धति और साधना है ! हम प्रत्येक पथिक को ऐसा भाव और मार्ग मिलें ! ����������������

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