मेरे प्राणेश मनमोहन तुम्हे ढूँढू कहा जाकर
बड़ा बेचैन हु तुम बिन जरा देखो मुझे आकर
ना भूलूंगा कभी उपकार अपने उस हितैषी का
जो करवादे मुझे दर्शन कह्नैया को यहाँ लाकर
ओ मेरे प्राणेश मनमोहन
तुम्हे ढूँढू कहाँ जाकर
प्रार्थना दास की तुमसे यही करजोर दोनो है
लिपट जाऊँ तुम्ही से मैं
तुम्हें आनंदघन पाकर
ओ मेरे प्राणेश मनमोहन
तुम्हे ढूँढू कहाँ जाकर
***
मेरे प्राणेश-
यह आखिरी शाम,
और वह भी ,बीत गयी.
तुम्हारी वह, खामोशी,
आज फिर से, जीत गयी.
कुछ भी तो मुझे न मिला,
न राधा का प्रेमाभिमान,
न मीरा का सतीत्व.
फिर कैसे मिलता,
मेरे यौवन को व्यक्तित्व.
क्योंकि सागर की, बाहों में हीं,
नदी पाती है अस्तित्व.
काश! तुम समझ पाते,
मेरे जीवन की आश,
जैसे धरती और आकाश,
वही अधूरी प्यास,
तुम्हें पाने का एहसास.
शायद इसीलिए, अब तक,
चल रही थी साँस.
आज फिर वही तन्हाई है,
फर्क इतना- सा है,
कि तुम्हें मुझसे छुड़ाने,
स्वयं मौत चलकर आई है.
कैसे उसे समझाऊँ,
कि मैं एक विक्षिप्त हूँ.
तुम्हारी स्मृतियों के ,
अवसादों से लिप्त हूँ.
आज भी व्याकुल ,
विवश और, रिक्त हूँ.
करोड़ों सृष्टियाँ होंगी,
और करोड़ों जन्म.
यह आत्मा ढुढ़ेगी,
जीवन का मर्म.
मगर इसे मुक्ति न मिलेगी.
इस अधूरी आत्मा को,
कभी तृप्ति न मिलेगी.
क्योंकि मैं तुम्हारी हूँ,
सिर्फ तुम्हारी……….
***
लो
मेरे
प्राणेश !
सब कुछ
तुझपे हारी ,
प्यार निभाने की
अब बारी तुम्हारी !
***
एक तुम्हारा अनुग्रह पाकर भक्ति भावना जागी मन में
वरना भटक रहे जीवन को कोई दिशा नहीं मिल पाती
इस मन के सूने मरुथल में तुम बरसे बन श्याम घटायें
एक तुम्हारी कृपादृष्टि से सरसीं मन की अभिलाषायें
इस याचक को बिन मांगे ही तुमने सब कुछ सौंपा स्वामी
फिर जीवंत हुईं हैं जग में कृष्ण-सुदामा की गाथायें
एक तुम्हारी वंशी के इंगित से सरगम जागी जग में
वरना बुलबुल हो या कोयल कोई गीत नहीं गा पाती
करुणा सूर्य तुम्हारा जब से चमका मेरी अँगनाई में
हर झंझा का झौंका, आते ढल जाता है पुरबाई में
नागफ़नी के काँटे हो जाते गुलाब की पंखुरियों से
गीत सुनाती है बहार, हर उगते दिन की अँगड़ाई में
एक तुम्हारा दृष्टि परस ही जीवन को जीवन देता है
केवल माली की कोशिश से कोई कली नहीं खिल पाती
तेरी रजत आभ में घुल कर सब स्वर्णिम होता जाता है
मन पागल मयूर सा नर्तित, पल भी बैठ नहीं पाता है
तू कवि तू स्वर, भाषा, अक्षर, चिति में चिति भी तू ही केवल
तेरे बिन इस अचराचर में अर्थ नहीं कोई पाता है
तेरे वरद हस्त की छाया, सदा शीश पर रहे हमारे
और चेतना इसके आगे कोई प्रार्थना न कर पाती
राकेश खण्डेलवाल
***
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