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आशा निराशा पिपासा और तृषा

आशा , निराशा और पिपासा ...

क्यो ? से मुक्ति अध्यात्म में अनिवार्य है !
क्यों ? से निवृत हो कर ही भगवत् पथ खुलता है !
तब ही जिज्ञासा प्राप्त होती है ... तर्क वितर्क हो कर गर्भ में ले जायेगा ... सवालों विचारों के गर्भ से बाहर न आया जा सकेगा ...
भगवत् पथ की मूल प्रारम्भिक आवश्यकता है .... श्रद्धा ! श्रद्धा से पूर्व विश्वास होता है ! विश्वास की माटी सत्संग की चाकी पर गुरु या सुहृद जन द्वारा श्रद्धा होती है ... ... श्रद्धा का कारण आकर्षण ! आकर्षण से श्रद्धा गहराती है ...
बिना श्रद्धा भी प्राप्ति तो है ... जैसे शिशुपाल , कंस , रावण , कुम्भकरण , हिरण्यकशिपु आदि ! यें प्राप्ति विपरित आवेश में है और तीव्र प्राप्ति है ! इन प्राप्तियों में सन्मुखता का लाभ तो मिला पर भगवत् रस और प्रेम नहीं .... !
श्रद्धा के 3 मार्ग है एक आशा या कामना का जो श्रद्धा करता तो है , मानता भी है , पहुंचता भी है परन्तु आशा की निवृत्ति कर लौट आता है | जैसे दुर्योधन जो आशा लेकर गया श्री कृष्ण के पास और सेना लेकर लौट आया .... वो गया अर्थात् श्रद्धा तो थी परन्तु यहाँ श्रद्घा ऐश्वर्य के आकर्षण में हुई !
दूसरा निराशा जिसका उदाहरण है विभिषण ! जो सब तरफ से निराश हो रघुनाथ जी की शरण में गया .... वहाँ केवल इतना बोध है कि भगवान शरणागत् वत्सल है | अत: निराशित आशा वान् से अधिक पहुंचता है | शरण्य हो जाता है ! अपने संसार से हार हरि के आगे मस्तक टेक देता है | निराशा से भी भगवत् पथ पर आने पर शरणागतवत्सल की आनन्दमय प्राप्ति सुलभ है | जगत् में नित्य आनन्द नहीं , कष्ट हमें गहराई में उतार देते है |
तीसरा कारण है पिपासा ...प्यास ... तडप .... व्याकुलता ... उदाहरण भक्ति के आदर्श भाव को स्वत: प्रगट करती .... ब्रजगोपियाँ ! 
श्रद्धा सम्मान से शुरु होगी .... भीतर जितना गहरा सम्मान होगा , जैसा सम्मान किसी से या सत्संग से प्रगट हुआ वैसी श्रद्धा .... और श्रद्धा पूर्ण होगी संकल्प पर | भगवान के सम्मान में सम्मान तो हो परन्तु आशा और निराशा भी सम्मान के संग है तो केवल यथेष्ट तक ही सम्बन्ध रहेगा | अत: विश्वास हो , श्रद्धा हो और पिपासा हो |
यहाँ प्यास ऐसी है कि वें जायें भी न कृष्ण तक तो कृष्ण स्वयं आने को प्रतिक्षण तत्पर है | आते भी है माखन चुराने .... मन की निर्मलता , कोमलता माखन है | एक तो गहरी सच्ची तृषा नहीं ... व्याकुलता नहीं ... जानकर कि मनहर है बस मन कोमल ही तो करना है , माखन सा ! कोई कणी न रहे | कोई कलुषितता भी न रहे । पूर्ण धवलता हो (सफेदी माखन सी दाग रहित) .... बिल्कुल माखन सा मन हो तो चोर आना तय है | माखन (निर्मल मन) तैयार रखें ... लुटने का मन पूरा हो । मन ही नहीं तो कैसे आयेंगे । सब ज्ञात तो है कि वें चोरी से आते है । दिया हुआ राज तो उन्होंने उग्रसेन जी का भी न लिया । सर्वस्व लुटाने को तैयार तो रहे .... बस मन बना लें कि तुम चोर हो तो चुरा क्यों नहीं लेते तब आना ही है उन्हें ! दो बात और ज़रुरी है ... ईच्छा और प्रतिक्षा !  प्रतिक्षा ही तप है .... शारीरिक मुद्रायें तप नहीं | मुद्रायें तो सर्कस में बेहतर होती है परन्तु उन्हें कृष्ण को रिझाना नहीं , ना कृष्ण को मिलना ही | पिपासा और प्रतिक्षा गहरी हो ... पुकार में हृदय की सच्ची आह | पूर्व में हजारों वर्ष की तपस्या पर भी मिलन न होने पर चेहरे पर शिकन् न होती | प्यास और आस गहराती रहती ..... क़द़म पिछे न जाते | और मिलन हो ही जाता ... तो अब आज , कल अनुभूत् प्रेम पर आज तुरंत ही मिलन की चाह पूर्व के पथिकों से अन्याय है | मिलन होगा जब सटीक पुकार में प्यास वहाँ पहुँचेगी ! प्रतीक्षा तो शुद्धिकरण है ... और हृदय की व्याकुल पुकार वहाँ निश्चित् ही पहुंची है | अगर मन रूपी माखन तैयार कर बांट जोह रहे है तो कान्हा तो आने ही है | भगवत् रस भी यूं न सुलभ होगा ...   परीक्षार्थी या परीक्षक नहीं परीक्षित होना होगा | परीक्षित से आशय है सम्पूर्ण परीक्षाओं में उतीर्णता ! जगत् के स्वरूप को जान , उतीर्ण होने पर परीक्षित होकर भगवत् स्वरूप और रस को जानने का अवसर स्वयं गुरु रूपी निकटतम् भगवत् स्वरूप से सुलभ होता है |
कर्षयति इति कृष्ण ... आकर्षण है वें | एक बार महक या झलक की भनक भी लग जायें ... तो कृष्ण को आना ही है .... कृष्ण लेना नहीं चाहते चुराना चाहते है | बस मन को खुले में रखने भर की देर हो ! मन को सजा दो उन्हें आना ही है ... हाँ हीरे को डिबिया के बाहर रखने पर संकट अधिक गहरा जाता है अत: मन को सत्संग और भजन में लगाना होगा वरन् निर्मल सवच्छन्द बाँट जोहता मन ... लोभ मोह आदि आसुरी विकारों से चुरा लिया जायेगा | अत: मन का अपहरण काम क्रोध आदि मायिक शस्त्र रूपी विकार न कर लें सो समदर्शी भाव से भजन और सत्संग ! हरिनाम के सहारे ही मन की निर्मलता को धुमिल होने से रक्षित किया जा सकता है | सत्संग के श्रवण में अधिक कृपा है कहने की अपेक्षा ! कहकर स्वयं को भी सुनाना हो तब वाचक स्वयं से न्याय कर रहा है । .....वक्ता अपने भी भीतर को श्रोता माने , तब रस बढेगा ! क्योंकि श्रवण लाभ गहरा है | सुन कर हृदय पर हरिचर्चा रूपी कमल अर्पण करने हेतु केवल सुनना नहीं मनन हो ... अत: रस कहा गया सत्संग को , जिसे हृदय को कर्ण पात्र से पिलाया जावें | वस्तुतः प्रेमी के लिए ये सब रस ही है । और एक और बात इन दिनों अनुभूति में आई है । रस से  ऊर्जा आदि भी वर्धन होता है । शरीर की भाँति आत्मा का भोजन भजन(साधना) -सत्संग है । आत्मा पोषित हो रही हो तो देह को क्षुधा का आभास न होगा । देह की क्षुधा , रस तो प्राप्त करती है परन्तु भगवत् रस को बाधक करती है । जीव एक समय में एक ही प्रकार का तो रस पायेगा या तो भगवत् रस जो कि चेतन और नित्य हो , और एक शरीर के हेतु रस । जिस प्रकार सामान्यतः सूक्ष्म देह (आत्मा) कारण देह (चित्त,बुद्धि,अहंकार) के साथ मिल कर स्थूल देह (शरीर) के साथ भोजन का रस लेती है । अर्थात शरीर के भोजन आदि रस में मन आत्मा रंग जाते है वैसे ही विशेष विभूतियों में आत्मा के मूल रस भजन से स्थूल देह भी रस मय हो सकती है । सभी इंद्रियों से रस पीने की लोलुप्ता से गोपियां नित्य रस पान कर सकती है । खैर यें अनुभूति किन्हीं विशेष सन्दर्भ में प्राप्त हुई । जब अन्य रस में भगवत् रस ही पिपासा को पीलाते हुए और बढ़ाये । अनुभूतियाँ भगवत् कृपा से होती है और अनुभव का सम्बन्ध पुरुषार्थ से है । अतः अनुभूतियाँ भगवत्प्रसाद होने से अधिक श्रेष्ट है ।
क्यों ? की निवृत्ति प्रथम हो क्योंकि क्यों में सन्देह -संशय घुला है । समझदारी से कृष्ण नहीँ समझे जा सकते । पूर्ण ज्ञानी भी भीतर से पूर्ण प्रेमी होगा ही क्योंकि भगवत् ज्ञान भी कृपा से भक्तों को सुलभ है । अपने दम्भ में पढ़े वें ही शास्त्र बाधक बन जाते है जिनमेँ पूर्ण तत्व और रस निहित है ।  गीता में भगवान अर्जुन के क्यों की ही निवृत्ति करते है । गीता दिमाग से दिल तक उतरने का रियाज़ ही तो है । बार बार भीतर उठते क्यों , की निवृत्ति के दो तरीके है या तो क्यों का गला घोट दो जैसे बुद्ध , आदि तत्वज्ञ , यें कठिन पथ है । और प्रेम से दूर ले जाता है । दूसरा है ..... क्यों के उत्तर को पकड़ लो । उत्तर मिलेगा नहीं पकड़ना पड़ेगा .... सत्संग से उत्तर है कृष्ण के लिए । चोटी क्यों ? तिलक क्यों ? यें क्यों ? ऐसा-वैसा क्यों ?
उत्तर -- भगवान (कृष्ण) के लिए । क्योंकि मैं भगवान का हूँ । मूल रूप में भगवत् पथ पर सत्संग अनिवार्य है , सत्संग से ही ऐसी ऐनक मिलती है कि भगवान ही दिखाई देवें । सत्संग में मन लग जाये तो विवेक प्राप्त होता है । विवेक ही तो सदा संगी गुरु है , गुरु का कर्तव्य भी शिष्य के विवेक की जागृति ही है । हम आज हर छोटी से छोटी चीज़ को फिल्टर करते है .... जल तक को भी । पर विचारों और जीवन के संग , कर्म आदि पहलूओं को बिना फिल्टर ही भीतर भर लेते है ।6 विवेक रूपी छलनी , इंद्रियों पर कस दी जावे तो सुना , देखा , छुआ , कहा आदि सब विवेक से फिल्टर होकर भीतर जावे । और इस तरह मन निर्मलता को प्राप्त होता है । कई भक्तों को श्रद्धा विरासत मिली और बहुतों की श्रद्धा ने नया रूप लिया । विरासत की श्रद्धा जैसे पारिवारिक संस्कार-मान्यताएं आदि  की भी कुछ आवश्यकताएं है रसोई हो , सब्जी-मसाले सब हो , रसोईया भी हो , बर्तन भी हो परन्तु आग ही न हो तो भोजन पकेगा कैसे ?
वापिस वहीँ घूम-फिर कर व्याकुलता-पिपासा-लोलुप्ता-तडप-वेदना -तृषा जिस भी रूप नाम से हम समझे , ऐसी व्याकुलता की परम् अनिवार्यता है । प्यास नहीँ तो भगवान सन्मुख भी भगवान नहीँ , प्यास है तो दृष्टि में भीतर-बाहर भगवान ही है ,  । क्यों , की निवृति और भगवत् अनुभूतियों की प्राप्ति के अगले कर
क्रम में ....। क्रमशः।सत्यजीत "तृषित"। 8955878930 ....

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