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हाय मोरा पियु बिन । प्रेम रस मदिरा ।

हाय मोरा, पिया बिनु जिया घबराये |
बरसों बीत गये गये घर सों, परसों कितक विहाये |
कहँ लौं मन समुझाउँ सखी अब, मनहूँ भये पराये |
सुधा समान बैन सखियन के, विष सम मोहिं जनाये |
छिन आँगन छिन बाहर भाजति, कितहूँ चैन न आये |
कबहूँ तो ‘कृपालु’ पिय हियहूँ, ‘हाय !’ लगेगी जाये  ||

भावार्थ    –     ( जब श्यामसुन्दर गोपियों को छोड़कर मथुरा चले गये तब एक विरहिणी अपनी विरह – व्यथा को अपनी अन्तरंग सखी से बताती है |)
हाय ! सखी ! मेरा मन प्रियतम श्यामसुन्दर के बिना अत्यन्त ही घबरा रहा है | अरी सखी ! उन्होंने कहा था कि परसों ही आ जायेंगे किन्तु बरसों बीत गये उनका अभी तक परसों नहीं समाप्त हुआ | अरी सखी ! अपने मन को किस प्रकार एवं कहाँ तक समझाऊँ और अगर समझाऊँ भी तो वह भी तो उन्हीं के पास चला गया है, फिर हमारी बात मन समझ कैसे सकता है ? मेरी परम अन्तरंग सखियों के अमृततुल्य मीठे वचन भी मुझे विष के समान प्रतीत हो रहे हैं | मैं क्षण – क्षण में कभी घर में आती हूँ कभी ‘प्रियतम आते होंगे’, इस आशा में भागती हुई घर से बाहर जाती हूँ किन्तु कहीं भी चैन नहीं मिलता | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी विरहिणी ! तू घबरा मत, कभी तो प्यारे श्यामसुन्दर के हृदय में तेरी यह ‘हाय ! हाय !’ की ध्वनि अवश्य ही प्रभाव डालेगी एवं उन्हें विवश होकर आना पड़ेगा |

(  प्रेम रस मदिरा     विरह  –  माधुरी  )
  जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित  -  राधा गोविन्द समिति

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