प्रीतम का झुंझुना (खिलौना)
खिलौना कितना ही छोटा हो उसमें भोक्ता को देने के लिये रस है |
जीवन एकरंग मंच है ! और हमें अभिनय करना है ! देह केवल अभिनय हेतु है ! और इस अभिनय को इस तरह करना है कि महादर्शक को हर्ष मिलें , रस मिलें ! भक्त और परम् ज्ञानी केे लिये ईश्वर का लोप होता ही नहीं ! जगत् को ईश्वर मान जीवन लीला ही होगी ! नित्य लीला ! प्रत्येक क्रिया को समर्पण भाव से करना ! भगवत् सुख के लिये ! पूर्ण रूपेण ईश्वर रस के भाव से ! प्रति क्रिया कर्म ईश्वर अर्पण के भाव से रहे ! दृश्य को दृश्य में लगा , मूल में निहित प्रेमस्वरूप को ईश्वरोन्मुख करना है ! निज स्वरूप का बोध है दृश्य से हटने में ! अहम् निवृति में ! अहम् गुण दोष से ज्ञात है ! सत रज तम गुण और दोष की निवृति में प्रीति उदय होगी ! दोष से हटने के लिये सत्संग और साधन भक्ति है ! आहार विहार से त्रिगुण है ! छिपे हुये दोष की कारण सहित गुण निवृति से प्रेम प्रगट होता है प्रेम गुणातीत है ! दोष न होने पर उस गुण का अभिमान पिघलने लगता है ! और अहम् रहित भाव तब होता है ! परन्तु यहाँ प्रयास न हो , प्रयास भी अहंकार से जुडा है ! पहले दृश्य को दृश्य में राग रहित करना है अर्थात् संसार में शरीर को लगाकर अपना सम्बन्ध संसार और शरीर से हटा कर प्रभु जी की और ! ... फिर विशुद्ध समर्पण ! कहने भर का नहीं पूर्ण रूपेण ! तब ईश्वरिय सत्ता से स्वत: प्राप्त सेवा और पुरुषार्थ होने लगते है ! श्रम , संयम , सदाचार आदि बिना प्रयास होते है ! कहने का अर्थ शरणागत ईश्वर का हुआ तब सभी क्रिया ईश्वरिय कृपा से स्वत: होती है ! चुंकि पूर्व में जीवन कैसा भी रहा हो परन्तु शरणागत का जीवन ईश्वर अनुरूप है ! सो नविन से अनुभुत् होते गुण से दोष की काष्ट जलती है फिर त्रिगुण का अभिमान भी गल जाता है ! जैसे पूर्व में कटु भाषी रहा तो मृदुलता ईश्वरिय कृपा से होगी फिर जब कटुता पूर्ण तिरोहित हो तब मृदुलता का भी अभिमान हो सकता है परन्तु यहाँ मृदुलता शरणागत भाव से प्रयास रहित कृपा ही है सो मृदुलता का अभिमान भी न रहेगा ! कई गुण केवल दोष के निरोध रूप में है ऐसे सत रज तम गुण से भी हटने पर परम् सहजता में प्रीति का दर्शन होगा ! त्रिगुण के विषय में गीता जी का अध्याय 14 श्लोक 5 से 18 है ! फिर इसी अध्याय में गुणातीत का स्वरूप है श्लोक 22 से 27 तक ! प्रेमी गुणातीत ही है !
कुल मिलाकर प्रवृति और निवृत शुन्य ! कर्तापन रहित ! स्व रहित निरन्तर भजन ! दु:ख और सुख में समान अथवा दु:ख के ताप को प्राकृतिक तप जानना और सुख से आसक्त न होना ! स्वर्ण और रज में भेद रहित ! निंदा-स्तुति में एकभाव !
त्रिगुण आहार विहार पर प्रभावित है ! त्रिगुण आहार विहार गीताजी अध्याय 17 में 7 से 22 तक है !
देहत्व और अहम् ज्यों-ज्यों जाता है प्रीति और रस बढती है ! भेद और दूरी न रहने पर प्रीति (ईश्वर द्वारा की कृपा से आकृष्ट अनुराग) प्रीतम से एकरूप होती है ! यहाँ नित नव मिलन और विरह है ! मिलन-विरह लीला रस ही है ! प्रीति वर्धक !
प्रीतम में तिरोहित होना मिलन ! और हट कर सामिप्य-स्वरूप दर्शन आदि विरह है ! इसे यूं लें केवल प्रीतम ही है और कुछ नहीं यें मिलन और मैं प्रीतम की हूँ यें विरह है !
अहम् के गलने पर प्रीति में ही प्रीतम नित्य है ! और प्रीतम में ही नित्य प्रीति ! हमें प्रीति होना है ! प्रेम रस मय है ! अब सारा जीवन रसवर्धन प्रीतम के हेतु है ! ना कि निज रस की लालसा ! जीवन एक निकुँज है और समस्त आयोजन युगल रस हेतु ! यहाँ यें न विचारें की फिर हमारा रस ... हमारा रस प्रीतम के पास है ! देना ही प्रेम है ! यहाँ प्रेम है तो वहाँ महाप्रेम ! परन्तु अभिप्सा - चाह - चिंता न हो ! जहाँ लिया वहाँ प्रेम न रहेगा ! यें भी स्मृत रहे ! अत: यहाँ मिला अभिनय में ही निहित हो ! भीतर न उतरे ! नित्य उपादान हो भांति भांति के रस निवेदन का ! यें बात दु:ख की नहीं कि जितनी चाबी भरी राम ने उतना चलें खिलौना ! खिलौना होना आनन्द है ! खिलौने में रस छिपा है - उन्माद छिपा है क्यों क्योंकि वह निज भाव में नहीं भोक्ता हेतु भोक्ता से भोक्ता के लिये है ! यहाँ रस है वहाँ आनन्द ! अगर खिलौना स्वत: भोक्ता को भुलाकर चलें तो व्यर्थ है ! मान लें बेटरी के खिलौनों को चलाकर रूम बन्द कर बाहर आ जाया जायें तो व्यर्थ है वहाँ उनका चलना ! यहाँ प्रीति (जीवात्मा) और प्रीतम नित्य है ! बस अनुभुत् रहे !
यहाँ देहगत् सामीप्य की माँग नही होती । नित्य ही एकत्व है । और नित्य ही अनन्त रस । यहाँ जो रस है वह वहीँ से है । उनका ही है ... परन्तु उनके रस वर्धन हेतु हममें रस है । सूर्य से ही दीपक में ज्योत है दीपक रूप में सूर्य रस वर्धन पाता है । और चन्द्र में निहित सूर्य का प्रकाश भी सूर्य को भिन्न रस का स्वादन कराता है । प्रेम प्रेमास्पद से अभिन्न करने में समर्थ है । प्रेम उदय हो तो कोई प्रयत्न नहीँ रहता । कोई अभ्यास नहीँ । एक बार विवाह हुआ तो पुनः कौमार्यता न होगी । केवल रस लीला । लीला में बार बार विवाह होने का अभिनय हो सकता है रसवर्धन हेतु । परन्तु कौमार्य न होगा अतः प्रेम लीलामय है अभ्यास नहीँ । और प्रेम हुआ कि अब मै नहीँ तब प्रेमास्पद ने अंगीकार किया । अब बार बार मैं खड़ा हो तो प्रेम हुआ ही नही । सम्पूर्ण बाह्य और भीतरी जीवन प्रेमास्पद को अर्पण । प्रेम कभी पूर्ण नहीँ होता नित्य वर्धन है ; नित वृद्धि । जो करना है ; उन्हीं के नाते उन्हीं के लिए । अपने भाव को नहीँ लाना । सदा स्वीकार्यता से अथवा वें जैसा निरूपण करें बिना फेर बदल । स्व बुद्धि होती ही नहीँ यहाँ स्व हेतु । जो है उनके लिए । क्योंकि सब समर्पित हो चूका । सब कुछ उनका हुआ और वे नित्य हमारे हुए ।
जब उनकी हो ही चुके तो हर परिस्थिति भेद रहित । परिस्थियों का सदुपयोग कर उन्हें उनकी पूजा में होना है। सभी उपादान-कर्म-भाव में प्रीतम का रस हो । नित्य भांति रस । प्रेमी से वहीँ होता है जो प्रेमास्पद चाहे क्योंकि अपनी चाह ; अपना मन ही नहीँ । प्रेमास्पद का मन ही प्रेमी का मन है । अतः ऐसे सन्तों के कर्म भगवत् भाव ही है । इसे ही बेख़ुदी कहा जाता है । बेमन या बेख़ुदी में नितांत अवर्णित आनन्द रस है । अतः प्रेमी में अपना मन न हो बेमन रहना दिव्य अनुभूति है । मन नित्य प्रीतम पास रह जाये ।
निज चाह नही , कोई चिंता , प्रयास न हो । पूर्ण अभयता । जैसे पत्ता वायु के बहाव में जहाँ वायु चाहे वहाँ उड़े । उसी प्रकार प्रेमी भी जड़ता से मुक्त है । अब पत्ता जितना वायु पर निर्भर होगा उतना ही उसकी उडान और आनन्द होगी । पत्ता अपनी बुद्धि ; मन लगाकर नहीँ उड़ सकते । और दूसरा भाव जैसे एक दीपक की बाती और से आलोकित हो ऐसा है प्रेम । एक पात्र में दो की प्रतीति । दोनों का रस आनन्द एक जैसे पात्र में वही तेल दोनों और के रस में बह रहा हो । प्रेम में दृश्य दो देह है शेष मन बुद्धि आदि एक । दो देह भी रस वर्धन के लिए । दोनों से आलोकित बाती का दीपक अधिक आलोक कर पाता है । और यहाँ रस नित्य और अनन्त तथा वर्धनशील है ।
अतः प्रेमी प्रेमास्पद की सत्ता से गतिशील और भीतर से निष्क्रिय है ।
जैसे मीरा बाईं आदि समस्त पद रचना आदि में कथ्य ईश्वर का ही है । प्रेमीयों की वाणी में संक्षिप्त में पूर्ण रस सार होता है क्योकि वहां भाव निरूपण तो ऐसा है जैसा प्रेमी पर कहा बेख़ुदी में है तो वक्ता प्रेमास्पद है । ईश्वर स्वयं को कहे तो उतना रस नहीँ होता । पर प्रेमी के रूप में उसमे जीते हुये वही बात कहे तो रस होता है । प्रेमियों की बेखुदियोँ में ही प्रेमास्पद प्रगट हो पाता है । और गोपनीयता तक बह जाती है । यहाँ मन ईश्वर का और स्वरूप प्रेमी का तो बात बड़ी रोचक हो जाती है । ईश्वर ही ईश्वर को कह सकता है उन्हें चाहिए बेख़ुद प्रेमी । समस्त शक्तियां- सामर्थ्य-माधुर्य -ऐश्वर्य आदि प्रेमी में ईश्वर की ही है और निराभिमानता से वह निवृत्त है ।
प्रेमी को रस देने हेतु मिलन और विरह दो विभूति है । दोनों में ही रस है । मिलन में विरह और विरह में मिलन है । कैसे ? मिलन का विरह ही वेचित्य कहा गया है । यानि चित् न होना अर्थात मिलन है पर वहाँ चित् नहीँ चित् विरह को विचार रहा है जैसे तुम न संग हुए तो ? या कब पूर्ण अपने में समालोगें ? नित्य संग है पर कब मिलोगे आदि ।
विरह में मिलन है वियोग का अर्थ विशेष योग । चित् पूर्ण रूपेण समाया हुआ हो प्रेमास्पद के रस में हो तो विरह दिखता है पर है मिलन । यें दोनों भाव ही साधक या प्रेमी में होते रहते है और दोनों ही रसवर्धक है । विरह में वेदना तीव्र होने से रस पूर्ण रूपेण बहता है । एक बात और प्रेम वर्तमान की वस्तु है । और वर्तमान में रस हो तो निजश्रम नहीँ चाहिए । श्रम हुआ भविष्य का रस । प्रेम वर्तमान का रस है । प्रेमी को एकात्म और भीतरी अनुराग चाहिए । श्रम का प्रारम्भ अहम से होगा जो कामना पूर्ति तक जायेगा । कामना पूर्ति प्रेम में नहीँ और कामना निवृति के लिए श्रम नही । प्रेमी के लिए सदा सर्वदा सभी अवस्थाएं , सभी परिस्थितियां उन्ही प्रेमास्पद की सत्ता में उनके ही लिए रसमय है । जित देखूँ तित पाऊँ का हाल है । अतः द्वेष आदि का स्थान ही नहीँ । प्रेम में रुखाई है तो भी रसमय । रस हेतु ।
प्रेमी की अवस्था परिवर्तन भी प्रेमी को बोधमय नहीँ रहती । अपनी अवस्था से सम्बन्ध होना अर्थात अपना होना , प्रेमास्पद का न होना । किसी भी तरह का स्व से जुड़ाव । प्रेमी एक रज (मृतिका) वत् है जिसकी स्थितियां कुम्हार जानता समझता है । सत्यजीत तृषित । रस भाव नित्य कृपामय है युगल कृपा रहे ।। श्यामाश्याम ।।
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