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वृन्दावन का माधुर्य

वृन्दावन का माधुर्य --

वृन्दावन ऐश्वर्य और माधुर्य में सर्वोपरि है, परन्तु इसकी विशेषता और विलक्षणता यह है कि इसका ऐश्वर्य इसके माधुर्यसे पूर्णरूपसे आच्छादित है, इसलिए इसकी प्रत्येक वस्तु मधुरसे भी मधुर है।

यहाँ कृष्ण में भगवत्ता का अभिमान नहीं है। जिस प्रकार द्वारिकाधीश द्वारिका के अधीश्वर हैं, उस प्रकार कृष्ण वृन्दावन के अधीश्वर नहीं हैं। यहाँ ये केवल गाय चरानेवाले एक ग्वारिया, गोपियों का माखन चुरानेवाले माखनचोर गोपाल हैं। इनके सिरपर राजमुकुट की जगह मोरपंख है और हाथ में अस्त्र-शस्त्र की जगह मुरली। यहाँ ये अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी नहीं हैं, बल्कि गोप-गोपियों के प्रेम के अधीन और उनके द्वारा नियन्त्रित हैं। यहाँ ये ब्रह्माण्ड के जीवों को अपनी इच्छा से नाचनेवाले परमेश्वर नहीं हैं, अपितु ये गोपियों की ‘ छछियाभर छाछ ‘ के लोभसे नाचनेवाले नटवर-नागर हैं।

यहाँ ये माधुर्य- स्वरूप हैं। जब ये त्रिभंग मुद्रा में कदम्ब के नीचे खड़े होकर मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए मुरली-वादन करते हैं, तब जैसे माधुर्य उमड़-उमड़ कर वृन्दावन के कण-कण को एक अनिर्वचनीय रस-सागर में डुबा देता है।

यहाँ के गोप-गोपियों का प्रेम भी अतुलनीय है। इनके प्रेम के कारण कृष्ण का प्रेम उसी प्रकार तरंगित होता है, जिस प्रकार पूर्णिमा के चन्द्रमा के कारण समुद्र तरंगित होता है। इस प्रेम के कारण कृष्ण विभु होते हुए भी नन्दबाबा की जूतियाँ अपने शीशपर धारण करते हैं, सखाओं को अपने कन्धे पर चढ़ाते हैं और उनका जूठा खाते हैं,
‘ देहि पदपल्लवमुदारम् ‘
कह राधारानी के चरणों में लोटते हैं और यह सब करके परम-आनन्दित होते हैं, कृत्यकृत्य होते हैं।

जय राधे…!!!
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