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कमलिनी श्यामा । सलोनी जु

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!! जयजयश्रीश्यामाश्याम !!

कालिन्द नंदिनी पुलिन पर रसतरंगे कभी उच्छल्लन से... तो कभी मंद... तरंग प्रति तरंग परस्परता को पकड़ने की होड़ में बह रहीं...सेज सी बिछी हो जलतरंगों की और निर्मल रसमग्न रात्रि का रसकमल रसकमलिनी को आगोश में लेने को....उसके पीछे सरकता तो कभी ढुरकता...कभी सरस कोमल रसपंखरियों से तो कभी पलकन की बुहारन से....होड़ सी लगी...रसीली प्रेममयी तकरार सुलझन सी...
कभी मंद तो कभी तीव्र होती जलतरंगें और कमल कमलिनी की चाल रस में मंद तो कभी चूर...
आखिर कब तक...कब तक यह रात्रि का इतराता चंद्र पुष्प ...रात्रि के खिले कमल कमलिनी को जलतरंगों के उतराव चढ़ाव से रसप्लावित करता रहता...इसकी चाँदनी को ढंक दिया एक श्यामघन ने और यह उलाहना सा देकर मुख मोड़ छुप गया वहीं ....
और यहाँ ...जलतरंगें जो चूड़ी कंकण की छनछन सी ताल दे रही थीं अब तक.... अब सरकन सिहरन की मंद रसस्मित तरंग प्रति तरंग छेड़न पर आ गया....मधुर छेड़न...जहाँ खनखन मौन हुई...कमलिनी पर झुका कमल ...जलतरंग के बहाव से भीगी कमलिनी की रस वल्लरियों से ओस सी सजी रसबूंदों को पलकन सम अपनी रस पंखरियों से सहला कर बुहारने लगा...किंचित सिहरन से कमलिनी जैसे लज्जा से मधु को समेटे कोमलत्व लिए कमल की तरफ ढुरक रही ....
जलतरंगें मंद मंद...और मंद...और मंद...और शांत हो गईं.... इन कमल कमलिनी के रसलिप्त महारसमौन को निहारती सुषुप्ति में खो गईं...और रस लहरियों की रसध्वनियाँ खनक से सनक...और सनक से भी केवल रसविमुग्ध श्वासों तक सिमट सी गईं....
पूर्ण रात्रि सुरत रंग में सरस सुकोमल कमल कमलिनी डूबे रहे...कभी कल कल...तो कभी सर सर...मधुर रस सेज की अंधियारी महकी सल पड़ती रस सेज पर...अहा !!
झुकन ढुरकन...सरसन सरगम ...रैन बीती...पर मौन जलतरंगों पर मंद रसमौन में भीगे रचेबसे यह कमल कमलिनी ...जैसे अभी ही तो निहारा परस्पर ...यूँ निहार में गहन...गहनतम डूब रहे...अर्धनिमलित..अर्धमिलित...
क्या कभी पूर्ण भी होती प्रेमवल्लरियों की यह रसरंग से सनी प्रेम अट्ठकेलियाँ...
वहाँ शशि श्यामघन के आगोश में और यहाँ कमलिनी कमल के....
और यहाँ रवि....आह !रवि...
कौन रोके अब इसे ...क्या फिर से कोई मेघ ....
ना...स्वयं कमल ने ओढ़ा दी अपनी पीताम्बर सम रस में विभोर विस्तृत रसबल्लरी इस कोमलांगी अति रसीली कोमल रसवल्लरी रसकमलिनी को ....अहा !
स्वयं निहार रहा और कौन गति यह पीतिमा लिए भास्कर की... रश्मियों की आढ़ से भी निहार सके उस पीताम्बर के दूसरी ओर जहाँ रस में लालिमा लिए सवर्णिम कांति रस लीन रसकमल की नीलीमा तले....तृषा....हाआह....अनंत तृषा....अपूर्ण....सदा से...सदा अतृप्त

!! श्रीहरिदास !!

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