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लालहि बस करनी , संगिनी जु

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*"लालहि बस करनी मदन मद हरनी*
*मल्कहि पग धरनी उरज उदित री।*
*हेमलता की फरनी श्रम जल की झरनी*
*निकट सुता तरनी वदन मुदित री।।*
*रूप सुधा की भरनी मोपै क्यों आवै वरनी*
*पिय टक टरनी त्रिषित छुधित री।*
*रस बस कै वरनी विपुल प्रेम परनी*
*श्री विट्ठल कुंज घरनी बिहारी बुधित री।।"*
हाँ  !!सांचि ही तो...मोपै क्यों आवै वरनी री...ऐसी सांचि प्रीति ना वरनी जावै.....
मैं तो बस गाए सकूँ यांको प्रीतिरसनहुं कौ सखी...गाए सकूँ राग रागनिन कौ ...ज्युं ज्युं रस ...उज्ज्वल रसनहुं कौ हिंडोरों सौं रसरज कौ ब्यारु झौंटा आवै री...त्यूं त्यूं निरखि कै सखी कहि जावै और तनिक ज्ह फूलनि कौ प्रेम झूलनि सौं सौह्यौ रस मौपै...कुंज पंछिन तै छिटकै और मैं झूमि झूमि कै गानो चाहूँ....गाएवो कौ प्रयास ही करूँ ...
"रसिक स्याम की जो सदा रसमय जीवनमूरि।
ता पद-पंकज की सतत बंदौं पावन धूरि॥
जयति निकुंजबिहारिनी, हरनि स्याम-संताप।
जिन की तन-छाया तुरत हरत मदन-मन-दाप॥"
नीलगगन ढुरकै स्वर्णकणिका सी सुवर्णिम धरा पर...जानै है सखी री !
प्रेम रत्न धन पायो....पर घूंगट की ओट सौं सिंगार अधूरो रह जावै ना...सो आज ज्ह धरा ने नीलगगन हेत अपनो पूर्ण सिंगार खोल बिछाह्यो है....यांके ताईं पुष्प लता वल्लरी रसझारि रूपसुधा प्रेमवर्षा रससुता इत्यादि इत्यादि सबनहुं तै झरन लागि ज्ह ओस की बूंदन सौं सजीलि...पियमन हठीली...लालहि बस करनी...मदन मद हरनी....अतिरस में गर्बीली सुवर्णिम कांति वाली न्यारी ...प्रेम अनियारी...नेत्र रस ढरानि...रसराजरानी धरा...हाय !मोपै क्यों आवै वरनी...
सखी...देख तो ज्ह रूप छटा...ज्ह सौंदर्य माधुर्य सौभाग्य लावण्यता रसपलावन सखी री...अधूरो ही रह्वै जब तांई यांको निहारे ना कोई री...
ज्ह नीलाम्बर नित...आह !...नित नव नव रस सींचन सौं ...नित...नित नव... नव निहारै है री और यांकी ज्ह टकटकी सौं सखी री...स्वर्णिम धरा नित...नित नव...नव रूपालंकार रससार अंगराग पुष्प यांके नयननरस कै सींचन सौं खिलावै...और और और गहरो निहारन तांई उकसावै....
सरल कर कछु बात कहूँ री कि ज्ह धरा पर जितनो भी सुघड़ रस कौ तानो बानो है ना री...ब्ह स्वयं नीलगगन ही अपनी प्रेम रसवर्षा सौं उपजावै...और ज्ह वर्षण सौं जितनो भी रूप रस गहरो उतरै खिलै धरा ते...ब्ह सगरा सुख सिंगार प्रियतम की प्रेम क्षुधा से निखरै और यांकि क्षुधा कौ प्रतिपल नव...नव क्षुधित करतो जावै...यांके सींचन सौं जु जु भी रस उपजै ...ब्ह जाकै तांई यांमै समानो च्हावै और स्वयंक्षुधित यांकि निहारन सौं नव...नव निखरै।
नित नव भाव उकरै स्वर्ण लता ते और नित नव ही स्याम तमाल सौं निरखह्यो जावै...ज्ह निरखन सौं थिरक थिरक जावै...कलि कलि पुष्प ह्वै जावै...
और सखी या निरखन कौ भी जब सिंगार इक कोर निरखै ना तो...तो री...री... भरि भरि और निखर जावै...रसिक की टकटकी सौं और आधीन क्षुधित हुयो और नव रसपल्लव खिलावै...
तनिक समझन तांई कहूं सखी...जैसे...जैसे अंबर सौं रसबूंदन वर्षण होय...कण कण सिहरै...स्पंदित होय...नव सींचन सौं नवरस पल्लवित होय और प्रत्येक रूप स्वरूप सौं सिंगारित अंबर सौं ही मिलन तांई धावै...जैसे एक बाल क्रीड़ावश प्रेमवश माई सौं अपनो जान खेलै और सहज सरस रसक्षुधित माई की रसक्षुधा नै पूर्ण लचक ठसक सौं निज जान सेवै ...दोऊन की क्षुधा शांत है जावै...पर ज्ह क्षुधा तो नित नित बढ़ै है क्यों कि ज्ह तो स्वयंचित्त क्षुधित अनंत रस कै पारावार की है ना...
एकहु रस कौ तानो बानो सबहिं...टकटरनी सौं खिलै और और और थिरकै संवरै और और और तृषा बढ़ावै...और और और निखरै और अंतघरि या टकटरनी में ही डूब जावै...एकमेक होय कै मिल जावै है री...रस झरै...नित भरै...नव नव ढुरै...और रसनहुं सौं मिलि रस है जावै।
जैसे जल अंबर सौं उतरे...सागर में भरै और भरि कै ढुरै...निखरै...और फेर अंबरहुं में समावै...आह !
सखी...पवन प्रकृति जीवन पुष्पवृष्टि जल सबहिं यांकि रससींचन की दृष्टि सौं निखरै और जितो जितो निखरै उतनो उतनो त्रिषित होय ...लता वल्लरी तमाल सौं निकलै और लिपटै और समावै...रस सुता भरै उछलै और उछल उछल छूवै...समा जावै...रज अणु पराग मकरंद...भ्रमर रसहंस मयूर सबहिं ज्ह इक रूप तैं रिसे ज्हं ते... अंत ज्हं की पिपासा और रस क्षुधा हेत रूपसौंदर्य कौ सिंगार करि कै ज्हं ते ही समावै ...यातै रस पवान तांई सिंगारित हुलसै नव...नव...और सुखहेत क्षुधित टकटकी सौं सिहर सिहर उल्लसित हुल्लसित यांमे ही समावै....
" एहो लाल झूलिये नेक धीरे-धीरे।
काहे को इतनी रमक बढ़ावत द्रुम उलझत चीरे-चीरे।।
जो तुम झुकि-झुकि झोटान के मिस आवत हो नीरे-नीरे।
हम बरजत मानत नहीं नागर लेत भुजन भीरें भीरें।।"

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