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स्फुरित कमलिनी , संगिनी जु

*स्फुरित कमलिनी*

प्रीति की रीति रति रस भोरी
निरखन सौं ही करै चित्त चोरी...
...ए री सखी...कबहूं निरखि हौ ? ...प्रीति की रीति की निहारन कू री...नहीं ना...
आ बैठ तनिक मनहु कै दृगन सौं बांचहुं...अरी...किंचित एकांतिक निहारन ते अखियाँ स्वतः मुंद जावै हैं री और छलक जावैं सो पूर्ण निहारन तांई तोसे कह रहि...पुस्प पहिलै कली होवै ना...पर यातै पुस्प बनन तांई निहारनो है मोये...बरनौ जाय ना तो बरनूं पर सखी याको निहारन में जो रस ह्वै न ज्ह नाए बरन सकूं...
अद्भुत अति न्यारि सोभा सौं ज्ह कमलिनी सुकोमला जलतरंगों की मौन सेज पर बिराजित भई..क्या कहूँ याकै रूप सौंदर्यता की...रसनहु की खान है रसखान री...  आह !!बस अपलक निहारनो चाहूं...निहारनो ही चाहूं...
सांचि कहूँ इन नयनन सौं न निहार पाऊं री...
काम्यबन के नीरव निरिह गहन सघन कुंज में गहन रसमधुरित सन्नाटों के मध्य रससरोबर की ज्ह अति अतिहि कांचनमणिनहु की आभाओं को भी विनिंदित करती सुकुमलतम रस पंखरिन सौं खिलती सजगती न्यारी अनियारी सुकुमला कमलिनी...जितै मात्र प्रीति के चक्षु सौं ही निहारो जावै है री और ज्ह रसपिपासु चक्षु मोंमै तो न हैं....तो कैसे निहारूं !!
आ...एकहु होय कै रसिक भ्रमर के नयनन की नमी सौं और यांकी नमी में समाए रस बिबस प्रेमहुं की श्वास सौं एकरूप होवैं निहारन तांई...च्यौं ...री द्वै रूप ते ना निहारह्यौ जाए...एकांतिक रसिक भी जड़ता में डूब जावै है री ...
रस कमलिनी जल की सतह पर बिराजित जित हंस हंसिनी और बन्य जीव लता पता बल्लरी किन्नरी सौंदर्य माधुर्य की मद सौं महके चहके निहारनो ही जानै ...भ्रमर ज्ह पुस्प की कुमलता कू समझै ...रसपिपासु ह्वै ना...स्वर्ण कुंदन कौ जौहरी ही पहचानै ना ऐसे ही मौन व तन्मय रसिक हिय भ्रमर सम निहारै...
"प्यारी तेरौ वदन कनक कौ कन स्रम जल कन सोभा देत री।
तामें तिल दृष्टि परत ही मन हरि लेत री।।"
ऐसो उजियारो अनियारो रूप या कमलिनी कौ सखी री...जामें द्वै नीलकमल नयन गढ़ै रह्वै.... रस कमलिनी को छिन छिन ....लोल निचोल सौं रंगरसभीनि सुपीत कमलिनी को ....निहार ना अघाते....
यांकि निहारन सौं ऐसो लागै ज्युं ज्ह सुपीतवर्णा उज्ज्वल ....उज्ज्वलतम...अत्यधिक उज्ज्वलतम है जाए री....जानै यांकि निहारन सौं ही प्रीत....मनहु कै करहुं सौं छूबत ना बनै यातै...पर यांकि निहारन सौं ही निखर निखर जावै...ज्युं ज्ह निहारन ही सांचि प्रीत या कमल कमलिनी की...
सखी...ज्ह रस में डूबै रसिक हिय कै नैन री .....यांकि नमी सौं कमलिनी जैसे ओस की बूंदन सौं सिंगार करै ...और...और...और...उज्ज्वल है जाए...ए री...तनिक सोंधी सोंधी श्वासन की महक या पिपासित हिय की.... आह....चाह.... रसिक हिय सौं बहै और कमलिनी कौ रस कै हिंडोरने सौं मंद मंद सरसावै....झुरावै...हिलावै...डुरावै...गुदगुदावै...और सुघर सुंदर रसोज्ज्वल बनावै...
ऐसी निहारन सौं सखि री कमल रस द्वैनैनन सौं भींजै भींजै यांकि रस जलतरंग सीतमंद लहरिन सौं नेह लगाए रह्यौ और एकहु बार ....द्वै बार ...और..और..उज्ज्वला कू मनहु कै अंक में भरै ...कबहु निहार निहार यांकै कमलदल लोचन में ...नील निचोल रंग में पगै हिय कमलरसनहुं सौं ढुरकै...कुमुदिनी की मधुर कस्तुरी की महक सौं सरसै... अंग अनंग...लोम बिलोम उज्ज्वलै....छिन छिन....नव नव....एकहु एकहु रसपुट सौं उज्ज्वल रूपरसन कू गहन पूर्ण दरसन...अहा ....तनिक सी निहारन सौं अगिनत बार निहार निहार घुलमिल जावै...और उज्ज्वलतम सौं उज्ज्वल होवै और मिलनो चाह्वै...घुलनो....स्वैविस्मृत होइह्वे कै खातर....ज्युं रसनहु की कनक बेल रसनहुं सौं भींजी नृत्यंत करत नव रागिनिन सौं सुरझि उरझि तमाल सौं लिपटै ....और ...और...उज्ज्वलतम होवै....
सखी...सांचि कहूँ ....नेक सौं दृगन की झलकन सौं कमलिनी निखर निखर जावै ....रस सरसाती रस उज्ज्वल होवै....और....और....निहारन सौं बतियाती छिन छिन अत्यधिक सुकुमल सुकुमल होवै....
और जानै है सखी...या रस उज्ज्वलता ऐसो गहरावै कि उज्ज्वलता कौ उद्गमकर्ता स्वपिपासु होवै याकि उज्ज्वलता सौं.... पान करै...और छिन छिन तृषित रह्वै ज्ह सुकमलिनी की सौंदर्यता माधुर्यता तें मुग्ध ...रसबिबस रसनहु कौ उज्ज्वल करै...चाखै....डूबै....बहै ...और उज्ज्वल करै .....और कहै...
"उर तन जाति पाति प्रनानि कौ कटि सौं करि संकेत री।
श्रीहरिदास की स्वामी स्यामा कुंजबिहारी कहत अचेत री।।"
ऐ री...
बलिहारि !!या परम उज्ज्वल रूप सौं और...बलिहारि या उज्ज्वल रसनहुं कौ ज्ञाता पारखी परम रसनहुं कै सिरोमनि उज्ज्वल रस जौहरि सौं....बलिहारि मैं वारि...यांकी अपलक प्रीति रसनहुं सौं भींजी निहारन सौं....बलिहारि....
!! जयजय श्यामाश्याम !!
!! जयजय श्रीहरिदास !!
          !!  जयजय  !!

जान सकती हूं यह श्रृंगार योग्य है या नहीं सखी जु
कुछ लिखा दोबारा इसमें

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