मनोरमे भृम रोग हो गया तुम्हें ... हे कमलनयनी ! यह मधुर दृग छटा बिखेरों । नित मोहित कर सन्मुख निज हिय से सर्वस्व निधि पवाओ और नित ही भृमित रहो । यह भृम कोई भृमर के दंश से तुम्हें हुआ है न री । सन्मुख सरस मोहिनी जु तुम सँग हो और मुदित नैन कौन दशा में यह प्रेमवेचित्य तुम्हारा उन्माद मेरे हृदय का सापेक्ष अपराध वत पीड़ादायी हो रहा । हे हर्षिणी , तुम्हारे चपल नेत्रों की दामिनियों के दर्श का लोभी मैं सूदन इस मधुता के दास्यता का पुजारी भी न रहा । यह नयन से जानती हो कौन बह रहा ... जीवन हो ... प्रेमाशीले मधुरवांगी ... सुभावझरणी ...करुणे । कौन रीत तुम्हारी अन्तस् यात्राओं में उत्तर जिन जिन स्वप्नों में तुम मुझसे विरहित हो ...वहाँ - वहाँ भाव निकुंजों मे तुम्हारी प्रवेश कर तुम्हें सरसत्व औषधियों का पान करा कैसे एक काल मे अनन्त केलि सुधाओँ की नित्य संगिनी तुम्हारे यह दृगझर हिय में समेटूं ...
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रजनी को झार कर भास्कर भी दर्शन कर रहे उस विचित्रा के चित्त रहित नित नव भावाकुंरण का ...
जैसे किन्हीं देव विग्रह को नमन करती सम्पूर्ण मिलन रात्रि कालिन्दी के तट पर प्रथम भावानुभूति में डूबी रही ... ना श्याम भाविनी भाव रोक सकें । न मनहर भास्कर का आगमन टाल पाये । निहार रहें ... पर ना निहार पा रहे .प्रिया मुख की विश्राम छवि जैसे नव नव तृषाओं का समुद्र उनमें कहीं खो सा गया । तृषाशून्य यह तृषित प्रियतम । तृषित ।।
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