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सेवा भाव , अमिता बाँवरी जु

*सेवा भाव*

सेवा एक अद्भुत भाव है। मूल रूप में सेवा प्राप्ति भगवत कृपा है। सेवक की अभिलाषा ही अपने स्वामी का सुख है, और उसे यह सुख देने ही स्वामी की प्रसन्नता है। वास्तव में स्वामी और सेवक का हृदय से सम्बन्ध प्रेम का हो जावै तो दोनों एक दूसरे के सुखानन्द को ही उतावले रहते हैं। सेवा की पराकाष्ठा पर *हनुमंत लला* खड़े हैं जिनका सम्पूर्ण जीवन ही राममयी है, राम सुख हेतु ही है।

   वास्तव में स्वामी का अपने सेवक को सेवा देना कोई अपने प्रभुत्व या स्वामी होने का प्रदर्शन करना नहीं है, परन्तु यह यो अपने आश्रित को आनन्द देने हेतु ,उसके प्रेम के आस्वादन हेतु ही है। श्रीराम ने हनुमान जी को श्रीजानकी जी की खोज हेतु भेज है। पवनसुत अपने स्वामी के आश्रित होकर ही उस विशाल सागर को लांघ रहे हैं। *प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माँहिं , जलधि लांघ गए अचरज नाँहिं* आपने मुख में राम नाम की मुद्रिका को धारण किये हुए विशाल सागर को लांघ रहे हैं पवन सुत। इस लीला के माध्यम से प्रभु श्रीराम जहां अपने सेवक के सेवा भाव का आनन्द ले रहे वहीं जग में नाम का महात्म्य भी प्रदर्शित हो रहा है। दैन्यता की मूर्ति पवनपुत्र हनुमन्त लला जी अपना सब बल अपने स्वामी के चरणों का प्रताप ही जानते हैं जिनकी सेवा में सदा उनके प्राण व्याकुल रहते हैं। राम नाम ही जिनका आधार है , जिनकी प्रत्येक स्वास भगवत सेवा हेतु है। ऐसी सेवा भावना की वास्तविक मूर्ति श्रीहनुमान जी हैं।कोई भी कार्य प्रभु के लिए असम्भव नहीं है परंतु वह सेवा सुख देकर जहां अपने सेवक को प्रसन्न करते हैं वहीं उसके यशगान में प्रभु का भी आनन्द छिपा रहता है। कोटिन कोटि वात्सल्य जिनके हृदय में उमड़ता रहता है , सेवा सुख देकर प्रभु अपने भक्तों पर अपना वात्सल्य ही तो उड़ेलते रहते हैं। स्वयम उस कार्य के हेतु होते हुए भी उसका श्रेय सेवक को देना ही इन भक्तवत्सल का आनन्द रहता है जिसे वह सेवा देकर ही प्रकट करते हैं।

  सेवक का सुख क्या है? हनुमान जी अपनी लीला द्वारा यह भी प्रदर्शित करते हैं कि सेवक का वास्तविक सुख तो सेवा ही है। अपने स्वामी के सुख के अतिरिक्त जिसकी कोई कामना शेष ही नहीं है। जिसे सेवा ही होना है तथा सेवा के लिए कोई पारितोषिक की भी आवश्यकता नहीं। वास्तव में सेवा हो जाना ही वास्तविक पारितोषिक है जिसमें सेवक अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को विलीन कर देता है। श्रीजानकी जी जब हनुमान जी को मुक्ता माला प्रदान करती हैं तो वह लीलावत अपने स्वामी के नाम , अपने स्वामी के सुख का ही अनुसंधान करने में लगे हैं।प्रत्येक मोती को तोड़ फोड़ क्या ढूंढ रहे हैं। क्या लील कर रहे हैं यहां प्रभु। उनको हर जगह राम नाम की ही खोज है। जहाँ उसके स्वामी का नाम नहीं, स्वामी का सुख नहीं ऐसे कोटिन कोटि सुख सेवक के लिए व्यर्थ हैं। उसे अपने स्वामी से कोई रिद्धि सिद्धि आदि कोई अपेक्षा नहीं अपितु सेवातुर को तो सेवा लालसा की ही उत्तरोत्तर भावना रहती है। सेवा के स्वरूप श्रीहनुमान जी के चरणों मे कोटिन कोटि वन्दन। प्रभु कृपा करें हम सब अधम जीवों के हृदय में भी अपनी स्वामी हेतु सेवा लालसा का एक कण भी उदित हो जावै।जय हनुमान । जी जय श्रीराम

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