Skip to main content

प्रतिबिम्ब लीला , संगिनी

आह !!प्रतिबिम्ब  .... ना कोई साधारण प्रतिबिम्ब ना सखी...श्रीश्यामाश्याम जु की छबिरस....रूपमाधुरी का अति सौम्य सुगम्य रसपान किया हुआ प्रतिबिम्ब....
अरी भोरी...ज्ह प्रतिबिम्ब तो स्वयं छका रह्वै है...सुधि कहाँ इसे कि श्रीयुगल को उनकी रसीली लजीली छबि दिखा सके....आरसी में स्वयं को निहारन से कितना सुख...सुख तो तब ह्वै जब स्वयं को निरख निरख ऐसी छबि प्रतिबिम्बित हो सम्मुख हो जिसे देख स्वै विस्मृत होवै और वो रूपमाधुरी उतर आए जिससे नेह कर उसे सुख देन हेत वही होय कै प्रीतसुख मानै...
सांचि कहूँ ...श्रीयुगल कौ दर्पण तो यांकि प्रीति कौ प्रमाण ह्वै जो ज्ह  प्रतिबिम्ब ना है सके....ज्ह तो निकुंज में स्थान पाए कै स्वै अभिमानी बनयो रहै के सखिन संग युगल कौ निहारन सुख पावै...
श्यामाश्याम जु को सांचो प्रतिबिम्ब ...सरस सजल दर्पण यांके नयन ही हैं री...जिन्हें निहार वे अपने रूप सौंदर्य माधुर्य का रसमय अवलोकन करै हैं...
सखी....निकुंज मंदिर में सखियन समक्ष श्यामा जु बिराजित श्रृंगार धराए रहीं और आरसी में निहार रहीं .....स्वयं कू...हा... स्वयं हैं ही कहाँ वे...ऐसे जैसे कहीं खोई हुई सी हैं ....उन्हें सुधि ही कहाँ कि ज्ह आरसी उनके सामने पड़ी है और उनका प्रतिबिम्ब यांमै झलक रह्यौ...
सखियन ने पूरो श्रृंगार धराए दियो और अंत में आरसी में निहारन तांई भी कही...पर श्यामा जु अभी भी एकटक अपने तृषातुर नयनों को निरख रहीं इस आरसिन में ।
थोड़ी ही दूरी पर कहीं किसी कदम्ब तले श्यामसुंदर खड़े वंशी बजा रहे हैं और सखियाँ उन्हें भी श्रृंगार कक्ष में ले आतीं हैं।श्यामसुंदर तनिक इठला कर श्यामा जु के नयनों को अपने करकमलों से ढाँप देते हैं ....श्यामा जु अभी भी मुग्ध सी आरसी के सम्मुख बिराजित...ऐसे निहार रहीं कि उन्हें स्वयं श्यामसुंदर के आगमन की भी खबर नहीं होती...जब कुछ क्षण नयना पर सुकोमलतम करकमलों का पर्दा सा लगा तो श्यामा जु जैसे सखी कू डाँट कर कह रही
'अरी !हट ना....मोहे निहारन दे....'
ज्ह देख सखियन संग श्यामसुंदर भी किंचित ठहर कर फिर श्यामा जु के समक्ष आ बैठते हैं और सखी बड़ी सावधानी से आरसी को वहाँ से हटा देती है।
सम्मुख बिराजित श्यामसुंदर जु को देख जैसे श्यामा जु को कोई अंतर ही नहीं दिखा क्यों कि वे तो पहले भी आरसी में अपने हियवासित प्रियतम कू ही निहार रहीं थीं ....अहा !!
तो बता का प्रेमसुख ज्ह प्रतिबिम्ब ही जानै....श्यामा जु के अक्स को मौन निहारता यह पर श्यामा जु इससे अनभिज्ञ नयनों में से हृदय में उतरते श्यामसुंदर को ही निहार अपना रूप संवारतीं...
श्यामसुंदर श्यामा जु के सम्मुख बैठ अपनी प्रिया कू निहार रहे ...सखी ने दोनों के सामने एक एक आरसी लाकर रख दी पर श्रीयुगल तो परस्पर नयनों में ही निरख रहे अपनी रसछवियों को...श्यामा जु की रतनारी अखियन में श्यामसुंदर और श्यामसुंदर के अनियारे नयनों में श्यामा जु....आह !!
क्या कहूँ जैसे एक ही रसछबि द्वै रूप लिए रसपान करा रही अभूतपूर्व अतीव सौंदर्य माधुर्य का।सखी....श्यामा जु के नयनों में श्यामसुंदर की छबि और श्यामसुंदर जु के नयनों में श्यामा जु की ....और दोनों के नयनों की छबि दीख रही सम्मुख पड़ रहे प्रतिबिम्ब में ...अर्थात श्यामसुंदर के सामने के दर्पण में उनके नयनझरोखों में से श्यामा जु की झलक पड़ रही है और श्यामा जु के सम्मुख पड़ी आरसी में श्यामा जु की नयनों से झलकती श्यामसुंदर जु की रसछबि...अहा...अद्भुत सखी...
श्रीयुगल परस्पर नयनकटोरों में भर रहे अपने रूप माधुर्य को और रसपान करा रहे परस्पर मधुर उज्ज्वल नीलसुपीत रसपल्लवों का....
सखी...जब ऐसी मनमोहक रसछबि यांके नयनों में निर्झर उतर आती है ना.... तब ही ज्ह अपना श्रृंगार पूर्ण मानते हैं री और यही यांके रसपूरित नयनाभिराम प्रतिबिम्ब जिनकी मधुरिमा में डूबे ज्ह स्वयं को भूल जाते और निहारते अपनी रसछबियों को ऐसे जैसे प्रेमास्पद के निहारन से जो उसे सुख मिल रहा वही सुख प्रेमी देने के लिए विवश होकर निरखन में स्वयं का ही रसपान करा रहा....सांची प्रीति सांचो प्रेम कौ प्रतिबिम्ब ....हाय बलि जाऊँ  !
अब पूर्ण श्रृंगार रस का पान करते श्यामसुंदर इतना तन्मय हो श्यामा जु के नयनों में अपनी छबि को निहार उनके नयनों से हिय में उतर जावैं और श्यामा जु यांके नयनों से होते हुए यांके हिय में .... ऐसे ही प्रतिपल श्रीयुगल गहरा रहे और परस्पर सुख हेतु स्वयं को निहारते निहारते अपने रूप को विस्मृत कर सामने वाले के रसाक्स में उतर कर उसे रसपान कराते....नयनों से नयना की नयनाभिराम रसझाँकि....इतनी गहन कि नयनों के करों से ही छूना भी चाहते पर छूते ना सखी...क्योंकि छू दिया तो रूपमाधुरी में डूबे वे स्वतः पृथक रसदेह ना हो जाएँ कहीं ....सो छूते भी नहीं.... और...और...और...गहन उतर रहे अपने ही प्रतिबिम्बों में परस्पर सुख हेत....कि उनकी रूपमाधुरी का मेरे नयनों से निहारने का सुख ही परस्पर पिला रहे रसयुगल  !!
जयजय🙏🏻🙏🏻

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात