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अधर अरुण तेरे कैसे दुराऊं ... संगिनी जु

नवमधुकर नवलता के लिए आज नवलता में वीलीन हुआ नवलता को पुकार रहा ...कैसे...तृषित सखी री...आह...तृषित... !
जाने क्यों आज श्यामा जु कुछ मान किए हुए श्यामसुंदर जु से रूठ कर सखी संग प्रिय की साथ वाली कुंज में जा बैठीं हैं।वे ही जानतीं आखिर क्या कब और क्यों श्यामसुंदर से किंचित रूठना भी आवश्यक सो अभिन्न युगल आज भिन्न कुंजों में...आह !
सखी...    सुनो श्यामा प्यारी जु...अब यह मान छोड़ो और निरखो अपने प्रियतम को...इंतजार में वे... ... ... 
पर...
ना...ना...तनिक रूको...अभी ना... ... ...
सखी ने उन्हें छुपाया हो जैसे...आग्रह कर रही अब
ऊपर से... ना और भीतर से...हाँ...हाँ...कहता श्यामा जु का हृदय...
अत्यंत करूणामयी श्रीराधा जैसे जावक रचे हाथों पर लालित्य सुहाता ना वैसे ही इनके रोम रोम से लालित्य झर रहा... ... ...अनवरत...
जब जब सखी मनाने आती तब तब सिहर उठतीं कि अब...अब...अब तो...प्रिय स्वयं पधारे हैं...
पर नहीं...तब उनकी हया की लाली तिलमिला कर दामिनी सी चपल हो उठती और वे सखी संग दूसरी कुंज में जाने से स्वयं को रोक लेती...आह... !
और वहीं इधर इस कुंज में सहचरी संग किए हुए श्यामसुंदर जु की दशा ऐसी कि क्या कहूँ...सखी री... ... ...
अधीर...व्याकुल...रोम रोम से विरह के श्रमजलकण बह रहे और प्रियतम इस विरहानल में अपनी देह से एक एक कर सर्व अलंकार हटा चुके...पीताम्बर को भी हटा रहे और सखी से बार बार कह रहे...विनती कर रहे...
सखी...मोहे ले चलो री उस कुंज में जहाँ प्रिया जु विराजित हैं...सखी...मैं खुद ही चला जाता पर प्यारी जु जैसे यहाँ से चली गईं ना... ... ...आह... ... ...मुझे तनिक विलम्ब हो रहा...कि उन्हें पुनः कोई पीड़ा ना हो सो तुम ले चलो ना...
सखी प्रियतम को ले जाना चाहती है पर वह भी दबे पाँव द्वार से ही लौट आती है कि कैसे कर इन्हें प्रिया जु की इजाजत बिन वहाँ ले चलूं...
सखी...देख...मैं तेरे वस्त्र धारण करूँ और तेरा श्रृंगार धर लूं तब तो तू ले चलेगी ना... ... ...
सखी तनिक सोच कर...ना रे...मोहे तो भय लगै है...

"अधर अरून तेरे कैसे कै दुराऊँ।
रवि ससि संक भजन कियौ अपवस,
अदभुत रंगन कुसुम बनाऊँ।।
सुभ कौसेय कसिब कौस्तुभमनि,
पंकज-सुतन लै अंगनि लुपाऊँ।।
हरखित इन्दु तजत जैसे जलधर,
सो भृम ढूंढि कहाँ हौं पाऊँ।।
अम्बुन दम्भ कछु नही व्याप्त,
हिमकर तपै ताहि कैसे कै बुझाऊँ।
जै श्रीहित हरिवंश रसिक नवरंग पिय,
भृकुटि भौंह तेरे खंजन लराऊँ।।"

... ... ...पर अब धीर कहाँ...और जानै है सखी री...यह अधीरता है किसकी ?
...नहीं ना...
अरी यह अधीरता व्याकुलता श्यामसुंदर की ना है री... ... ...उन्हीं श्यामा जु की है जो झूठो मान स्वांग किए बैठीं हैं...उनसे खुद पल ना रहा जाता प्रियतम बिन सो वे हियवसित श्यामसुंदर को जैसे पुकार उठीं...कैसी...कैसी पुकार...
अरी !वही... ... ...क्षुधित पुकार...जिसे सुन प्रियतम सहचरी से कर छुड़ा भाग उठे और आ रूके श्रीप्रिया जु से एक कदम पीछे...
पीछे...हाँ पीछे...पीछे क्यों...
अरी...श्यामा जु दर्पण सन्मुख बैठीं द्वार पर दृष्टि गढ़ाए हुए हैं और जैसे ही श्यामसुंदर ने प्रवेश किया वे अपलक उन्हें निहार रहीं...
जाने है वे क्या निहार रहीं... ... ...आह !श्रीप्रिया जु स्वयं को निहार रहीं...स्वयं को...
अहा...स्वयं को... ... ...स्वयं को निहार रहीं प्रियतम के हृदय में कि कैसी दशा हो रही श्यामा जु की यहाँ प्रियतम हृदय में...आह !... ... ...
उठ कर भागीं...तनिक विलम्ब ना कियो और लिपटाए लियो श्यामा जु ने श्यामा जु को और श्यामसुंदर ने श्यामसुंदर को... ... ...क्यों कि श्यामा जु के हिय में श्यामसुंदर उल्लसित विलसित श्यामसुंदर की रसतृषा हेतु पिपासित...श्यामसुंदर के हियवसित से मिलने को...रिक्त हृदयों में स्वैरूप प्रकाशित हो रहे... ... ...

"आज समाज सहज सुख बरषत हरषत मिलि मन माँहिं।
कोमल काम प्रेम मधुरे रस रहसि बहसि किलकाँहिं।।
मानो मल्ल जुगल जीतन हित नित छल बल तुलाँहिं।
राती गाती छाती कसि कटि पीत बसन फहराहिं।।
अंगराग मर्दत भुज दंडनि मुख मंडित मुस्काहिं।
बिनु बैंननि सैंननि सुख नैंननि चितै चितै इतराहिं।।
हाव भाव भृकुटि मटकन नट अटकि लटकि लपटाहिं।
अपनी अपनी गौं गहि घातनि बातनि बिहँसि रिसाहिं।।
कबहुँ कबहुँ जुरि जुरि अंग अंग मुरि परसत हूँ न पत्याहिं।
अति लावन्य निपुन लाघवता पुनि स्नेह नियराहिं।।
सकल कला कोविद विद्यापति काहू धीरज नांहि।
हाथापाई करत नवल बल अति व्याकुल अकुलाहिं।।
छाँड़त गहत गहावत भावत अति रस मिस मिलि जाहिं।
गूढ़भाई गाढ़े आलिंगन चुम्बन सखी सिहाहिं।।
अति सुगन्ध समरंध भए मिलि अलि नलिनी बलि जाहिं।
सहज सुरति रस मत्त परस्पर अंक निसंक समाहिं।।"

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