Skip to main content

प्रतीक्षा का मिलन

दूर रहकर पास बने हैं , पास निरंतर दूरी .......
दूर रहकर भी पास हैं सदा कौन ! हमारे प्यारे युगल किशोर । ये तो पूर्ण प्रेमसारस्वरूप हैं । जगत में भी कामनाओं के संबंध से जुडे दो हृदय दूर होते हुये भी पास रहते सदा , कैसे ! मन से ......सदा अपने अभीष्ट का चिंतन बना रहता हर पल । जहाँ देखो वही दिखाई देवे है , प्रियतम की स्मृति ही प्रियतम का संयोग है नित्य । तो ये प्यारे युगल के रूप में प्रेम ही साकार हुओ है  , तब क्या दूरी संभव इनमें .......नहीं कदापि नहीं .......इनके प्रेम को स्वरूप अथाह है सीमित शब्दों में कैसे बांधा जावे । ये दोनों न भाव से  दूर होवें हैं न तत्वतः , क्योंकि दो हैं ही नहीं ये । एक को स्वरूप पूर्ण ही तभी जब दोनों प्रकट , जैसे अग्नि । अग्नि और दाहकता मिलकर ही अग्नि हैं । यदि अग्नि में से दाहकता निकल जावे तो चाहें जो हो वह पर अग्नि न रहेगा । ये इन दोनों की परम अभिन्नता ही है जो इन्हें श्रीराधा और श्रीकृष्ण स्वरूप प्रदान करती है । तो दूर तो ये कभी होते ही नहीं । संभव ही नहीं । हमारी दृष्टि में जिस क्षण चाहें श्यामसुन्दर होवे अथवा प्रिया जू वे नित्य दोनों ही हैं एक में । अर्थात् दृष्टि में श्यामसुन्दर दिखते हुये भी वहाँ प्यारी जू पूर्ण समायीं हैं उनमें । एसे ही प्रिया जू के दर्शन समय भी प्यारे जू पूर्ण प्रकट चाहें हमें दीखें या नहीं । उन दोनों का रोम रोम दृश्यमान ही तब है जब दोनों मिलित वहाँ । ऐसे समझिये जैसे एक वस्त्र कब दिखता है , जब दो तन्तु , ताना और बाना संयुक्त होते तब ही वस्त्र पूर्ण होवे । ऐसो ही प्यारे प्यारी के मिले हुये स्वरूप है जो प्यारो दीखें और प्यारी भी दीखें । यह एक ।
दूर रहकर पास होना , यह संसारिक कामरूपी प्रेम में भी संभव है , परंतु पास होकर दूरी ....यह एक ऐसो विलक्षणता है जो केवल हमारे प्यारे प्यारी रूपी प्रेमसिंधु की ही महालहर है , जो केवल यहीं संभव है , अन्‍यत्र कहीं भी नहीं । पास निरंतर दूरी आह! ..........अति ही गूढ़ प्रेम स्थिती यह । यह दूरी कोई देहगत दूरी नहीं है । श्री युगल के प्रेम रहस्यों को तभी समझा जा सकता है जब उन्हें मात्र नायक नायिका न समझा जावे । वे देहधारी नहीं हैं हमारी तरह । वे चिन्मय रस तत्व हैं जो नित्य श्रीवृन्दावन में सर्वत्र विलस रहा है । वे देश काल सीमा से परे हैं । एक ही समय में सब जगह होते हुये भी , अपने गहनतम् परम निभृत स्थिती में अखंड रसभोग में लीन हैं ।फिर  यह दूरी कैसी है क्यों है इसके भी अनेकों भेद हैं । यहाँ हम एक दो स्वरूप ही स्पष्ट कर सकेंगे । एक स्वरूप है इस दूरी का कि निभृत स्थिती नित्य होते हुये भी अनन्त निकुंज , कुंज आदि  स्थितियाँ भी नित्य वर्तमान होती हैं । इन अनन्त स्थितियों में श्रीयुगल प्रेम के विभिन्न रसों का आस्वादन नित कर रहे हैं । जिनमें विरह रसास्वादन भी है । तो उसी क्षण प्रियतम के गहन आलिंगन में बद्ध श्रीप्रिया किसी बाह्य निकुंज स्थिती में विरहित भी हैं अर्थात् प्रियतम अभी पधारे नहीं हैं , प्यारी जू प्रतीक्षारत हैं तो एक साथ दोनों रसों का अर्थात् निभृत में नित्य संयोग तथा बाहर किसी निकुंज में विरहानुभूति हो रही है । अत पास निरन्तर दूरी ...........यह संयोग में भी विरह अनुभूति उनके नित्य तत्व स्वरूप के कारण है । इसके अतरिक्त दूजा गहन प्रेमजनित कारण भी है । वह है श्रीप्रिया की प्रियतम सुख की महानतम अनन्त तृषा .......यह तृषा परम विचित्र है । यदि किसी पात्र का कोई आधार होवे तो उसे पूरा भरा जा सकता है परंतु जिसका कोई तल ही नहीं अर्थात् जो अतल है वह कैसे भरा जा सकता । श्रीप्रिया की श्रीकृष्ण सुख  तृषा का कोई तल नहीं है ।  वे सदा इसी तृषा से आकुल व्याकुल हैं .......प्रियतम को हिय से लिपटाये हुये भी , रसदान करते हुये भी सुखदान करते हुये भी , उन्हें तृप्ति नहीं होती .......अर्थात् प्रियतम सर्वांगों से सुखपान कर रहे हैं परंतु प्यारी की तृषा इतनी गहन है कि पार नहीं पड रहा .......दूसरा ये कि प्रियतम जितना सुखपान करते जाते हैं प्यारी जु की तृषा उतनी ही बढती जाती है साथ ही साथ ......सोचिये कि आप जल पी रहे और जितना जल पीते जा रहे उतना प्यास घटने की जगह बढती जा रही तब ......   अर्थात् यही है संयोग में भी वियोग .....रसचूर हो रसपान करते हुये भी तृषा बढती जा रही दोनो ओर .......यही तृषा अनुभव करा रही कि अभी तो मिले ही नहीं .....देखा ही नहीं ......कैसी गहनतम् अवस्था होगी कि दोनों के नेत्र परस्पर डूबे हुयें हैं पूरे कि शेष कुछ सुध ही नहीं और इस डूबी स्थिती में भी हिय प्राण अकुला रहे दोनो के कि देखन की प्यास क्यों नहीं बुझ रही ........युगों तक डूबे रहने पर भी , पल पल यही अनुभव हो रहा दोनों को कि बस प्रथम .........सर्वप्रथम ही दृष्टि ने छुआ है अभी ......आह बस .....बस तनिक स्पर्श हुआ ही है दृष्टि का .....

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात